SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषयसूची १२५ सूत्रका अवतार २६२-४०८ विचयमें कोई भेद नहीं है, इसलिये उसे इक्कीसवीं गाथा द्वारा पेज्जदोषविभक्ति नहीं कहना चाहिये इस शंकाका समाधान ३७९ नामक पहले अधिकारका कथन समुत्कीर्तनानुगमका कथन ३८० इक्कीसवीं गाथाका अर्थ सादि-अधूवानुगमका कथन ३८१ गाथामें आया हा 'अपि' शब्द 'चेत्' इस स्वामित्वानुगमका कथन ३८२-३८५ प्रथमे लेना चाहिये, इसका खुलासा ३६५ | | 'दोसो कस्स होदि' न कह कर 'दोसो को होदि' नैगम और संग्रहनयकी अपेक्षा क्रोधादिमेसे कहने में हेतु ३८२ कौन दोषरूप और कौन पेज्जरूप है इसका 'दोसो को होइ' इसका क्रोधादि कषायोंमें से विचार दोषरूप कषाय कौन है यह अर्थ क्यों नहीं व्यवहारनयकी अपेक्षा कौन कषाय पेज्जरूप लिया, इसका खुलासा ३८३ और कौन दोषरूप है, इसका खुलासा ३६७ 'दोसो को होइ' यह पृच्छासूत्र न होकर ऋजु सूत्रनयकी अपेक्षा कौन कषाय पेज्जरूप पृच्छाविषयक आशंका सूत्र हैं, इसका और कौन दोषरूप है, इसका खुलासा खुलासा ३८४ शब्दनयकी अपेक्षा कौन कषाय पेज्जरूप और कालानुगमका कथन ३८५ कौन कषाय दोषरूप है इसका खुलासा ३६९ जीवट्ठाणमें क्रोधादिक काल एक समय बताया गाथाके 'दुठो व कम्मि दव्वे पियायदेको कहिं है और यहाँ पेज्ज और दोषका अन्तर्मुहूर्त वा वि' इस पदका अर्थ और नययोजना ३७० बतलाया है, अतः दोनों कथानोंमें विरोध असंग्रहिक नैगमनयकी अपेक्षा पेज्ज और क्यों नहीं आता इसका खुलासा ३८६-३८९ दोषके विषयमें बारह अनगद्वारोके कहने अन्तरानुगमका कथन ३८९ की प्रतिज्ञा ३७६ नाना जीवांकी अपेक्षा भंगविचयानगमका नैगमनयके दो भेद और शंका समाधान कथन ३९० बारह अनुयोगद्वारोंके नाम ३७७ भागाभागानुगमका कथन ३९२ उच्चारणाचार्यने पन्द्रह अनुयोगद्वार कहे हैं, परिमाणानुगमका कथन ३९६ उसी प्रकार यतिवृषभ आचार्यने क्यों नहीं क्षेत्रानुगमका कथन ३९८ कहे इस शङ्काका समाधान और दोनों स्पर्शनानुगमका कथन उपदेशकी अविरोधिताका समर्थन ३७८ कालानुगमका कथन सत्प्ररूपणाका पाठ सभी अनुयोगद्वारोंके अन्तरानुगमका कथन आदिमे न रखकर मध्यमे रखनेका भावानुगमका कथन कारण अल्पबहुत्वानुगमका कथन सत्प्ररूपणासे नाना जीवांकी अपेक्षा भंग ४०५ 02 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy