SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहित कषायप्रामृत सूत्रका आगमिक परम्परासे उल्लेख मिलता है उसकी तुलना षटखंडागम और कसायपाहुडके चूर्णिसूत्रोंसे करने पर यह मालूम होता है कि आगमिक परम्परामें ऋजुसूत्रको द्रव्यग्राही माननेका पक्ष प्राचीन कालमें अवश्य ही रहा है, जो षट्खंडागम और चूर्णिसूत्रोंमें भी स्पष्ट उल्लिखित है। लघीयस्त्रय (श्लो० ७२) तथा विशेषावश्यकभाष्य (गा० २७५३) में ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नयोंका अर्थनय तथा शब्दादि तीन नयोंका शब्दनय रूपसे भी विभाग किया गया है । जयधवला (पृ० २३५) में शब्दनयके स्थानमें व्यञ्जननय नाम दिया गया है। विशेषावश्यक भाष्य (गा० २२६४ ) में एक एक नयके सौ सौ भेद करके विवक्षाभेदसे नयोंकी ५०० और ७०० संख्या बताई है। इसी गाथाकी टीकामें विवक्षा भेदसे ६००, ४००, तथा २०० संख्या भी नयोंकी निश्चितकी गई है। जयधवला ( पृ० १४०) में अग्रायणीयपूर्वके वर्णनमें ७०० नयोंकी चरचाका उल्लेख है। ___ मल्लवादिके द्वादशारनयचक्र में तो विविध रीतिसे नयोंके अनेकों प्रकार चर्चित हैं। इस. तरहके विवक्षाभेदोंको ध्यानमें रखते हुए आ० सिद्धसेनने सन्मतितर्क (३४७) में नयोंके भेदोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि-संसारमें जितने प्रकारके वचनमार्ग हो सकते हैं उतने ही प्रकारके नयवाद हैं। यतः ज्ञाताके अभिप्रायविशेषको नय कहते हैं तथा अभिप्रायके अनुसार ही वक्ता वचनप्रयोग करता है अतः अभिप्रायमूलक वचनों के बराबर नयवाद तो होने ही चाहिए। नयोंकी कोई निश्चित संख्या नहीं बताई जा सकती । क्योंकि नयोंकी संख्या भी आखिर वक्ता अपने अपने अभिप्रायसे ही निश्चित करता है और अभिप्राय अनेक हो सकते हैं । अतः शास्त्रोंमें अनेक प्रकारसे नयोंके भेद-प्रभेद दृष्टिगोचर होते हैं। तत्वार्थभाष्य (१।३३) में लिखा है कि नयोंके जो अनेक भेद हैं, वे तन्त्रान्तरीय नहीं हैं, अर्थात् इन एक एक नयोंको माननेवाले मतमतान्तर जगत् में मौजूद नहीं है, और न अपनी बुद्धि के अनुसार ही इनकी कल्पना की गई है, किन्तु ये पदार्थको विभिन्न दृष्टिकोणोंसे ग्रहण करनेवाले अभिप्रायविशेष हैं। अतः नयोंके भेद प्रभेदोंका आधार अभिप्रायविशेष ही ज्ञात होता है। नयोंके स्वरूपके विशेष विवेचनके लिए इसी ग्रंथके पृ० २०१,२२०,२२१,२२३ और २३२ श्रादिके विशेषार्थ ध्यानसे पढ़ना चाहिए । सकलादेश और विकलादेशका विवेचन पृ० २०४ के विशेषार्थमें किया गया है। दर्शन और ज्ञानके स्वरूपका निरूपण पृ० ३३८ के विशेषार्थमें है । अतः वहीं से उन्हें पढ़ लेना चाहिए। इस प्रकार इस भागमें आए हुए कुछ विशेष विषयोंके विवेचनके साथ इस प्रस्तावनाको यहीं समाप्त किया जाता है। - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy