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________________ प्रस्तावना १११ मा० कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें नयोंका कोई प्रकरणबद्ध वर्णन दृष्टिगोचर नहीं हुआ। हाँ, उनके ग्रन्थोंमें द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन मूलनयोंकी दृष्टिसे वस्तु विवेचन अवश्य नयोंके भेद है। उनके समयसारमें निश्चय और व्यवहार नयोंका प्रयोग इन्हीं मूलनयोंके अर्थमें हुआ जान पड़ता है। समवायांग टीकामें द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, और उभयार्थिकके भेदसे तीन प्रकारका भी नयविभाग मिलता है। इसी टीकामें संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्दके भेदसे चार प्रकार भी नय पाए जाते हैं। तत्त्वार्थभाष्य सम्मत तत्त्वार्थसूत्र (१।३४) में नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुमूत्र और शब्द ये पांच भेद नयोंके किए हैं। भाष्यमें नैगमके देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी ये दो उत्तरभेद तथा शब्दनयके साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन उत्तरभेद किए गए हैं। षट्खंडागमके मूलसूत्रमें जहाँ निक्षेपनययोजना की गई है वहाँ तीनों शब्दनयोंका एक शब्दनयरूपसे भी निर्देश मिलता है तथा 'सद्वादओ' शब्द आदि रूपसे भी। कषायपाहुडके चणिसूत्रों (१ भा० पृ० २५९) में तीनों शब्दनयोंको शब्दनय रूपसे ही निर्देश किया गया है। श्रा० सिद्धसेन अभेदसंकल्पी नैगमका संग्रहमें तथा भेदसंकल्पी नैगमका व्यवहारमें अन्तर्भाव करके छह ही मूलनय मानते हैं। ____ तत्त्वार्थसूत्रके दिगम्बरसम्मत पाठमें, स्थानाङ्ग (सू० ५५२) में तथा अनुयोगद्वार सूत्र (१३६) में नैगमादि सात नयांका कथन है । धवला (प० ५४४) जयघवला (प० २४५) तथा तत्त्वार्थश्लोकवातिक (पृ० २६९) में नैगमनयके द्रव्यनैगम, पर्यायनैगम, और द्रव्यपर्यायनैगम ये तीन भेद मानकर नवनयवादीके मतका भी उल्लेख है। इसीतरह द्रव्यनैगमके २ भेद पर्यायनैगमके ३ भेद और द्रव्यपर्यायनैगमके ४ भेद करके पंचदशनयवाद भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकमें वर्णित हैं। - विशेषावश्यकभाष्यकार ऋजुसूत्रको भी द्रव्यार्थिक मानकर द्रव्यार्थिकनयके ऋजुसूत्र पर्यन्त चार भेद तथा पर्यायार्थिकके शब्द आदि तीन भेद मानते हैं । यही भाष्यकार श्रा० सिद्धसेनके मतका भी विशेषावश्यकभाष्य (गा० ७५) में उल्लेख करते हैं कि-संग्रह और व्यवहारनय द्रव्यार्थिक हैं। तथा ऋजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक है। सिद्धसेनके सन्मतितर्क (११५) में भी यह अत्यन्त स्पष्ट है कि ऋजसत्रनय पर्यायार्थिक है। श्वे० परम्परामें इस मतको तार्किकोंका मत कहा गया है। क्योंकि अनुयोगद्वार (सू० १४) में ऋजुसूत्रनयको भी द्रव्यावश्यकग्राही बताया है। दिगम्बर परम्परामें हम पहिलेसे ही व्यवहारपर्यन्त नयोंको द्रव्यार्थिक तथा ऋजुसूत्रादि नयोंको पर्यायार्थिक माननेकी परम्परा देखते हैं। एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि षट्खंडागम मूलसूत्र (ध० ५० ५५४,५८७) तथा कसायपाहुडचूणिसूत्रों (पृ० २७७) में ऋजुसूत्रनयको द्रव्यनिक्षेपग्राही लिखा है। प्रा० वीरसेनस्वामीने इसका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि यतः ऋजुसूत्र पर्यायार्थिक है, अतः वह व्यञ्जनपर्यायको, जो कि अनेक अवान्तरपर्यायोंको आक्रान्त करनेके कारण द्रव्यव्यवहारके योग्य हो जाती है, विषय करता है और इसीलिए वह पर्यायार्थिक होकर भी व्यञ्जनपर्यायरूप द्रव्यग्राही हो जाता है। श्वे० आगमोंमें जिस द्रव्यग्राही ऋजु (१) नियमसार गा० १९। प्रवचनसार २।२२। (२) घ० आ० ५० ५५४,५८७। (३) जैनतर्कभाषा प० २१ । (४) "तच्च वर्तमान समयमात्रं तद्विषयपर्यायमात्रग्राह्ययमृजुसूत्रः"-सर्वार्थसि० १२३३ । लघी० का० ४३। जयध० पृ० २१९ । त० श्लो० पृ० २६८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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