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________________ प्रस्तावना ८९ बताया है। ज्ञात होता है कि यह मत किसी अन्य प्राचीन जैन आचार्यका है। संभवतः इसका प्रयोजन यह रहा हो कि अजैन लोगोंने जब जैनियोंसे यह कहना शुरू किया कि ये लोग बड़े नास्तिक हैं, ईश्वर भी नहीं मानते आदि, तो जैनाचार्योंने उनकी इस भ्रान्तिको मिटानेके लिए शास्त्रके आदिमें किए जानेवाले मंगलके प्रयोजनोंमें नास्तिकतापरिहारका खास तौरसे उल्लेख किया जिससे अन्य लोगोंको ईश्वरके न माननेके कारण ही जैनियों में नास्तिकताका भ्रम न रहे। यह तो जैनाचार्योने ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्वका प्रबल खंडन कर स्पष्ट कर दिया कि हम लोग ईश्वरको सृष्टिकर्ता नहीं मानते किन्तु उसे विशुद्ध परिपूर्ण ज्ञानादिरूप स्वीकार करते हैं। अनगारधर्मामृतकी टीकामें मंगलके यावत प्रयोजनोंका संग्रह करनेवाला निम्नलिखित श्लोक है "नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ॥" इसमें नास्तिकत्वपरिहार, शिष्टाचारपरिपालन, पुण्यावाप्ति और निर्विघ्न शास्त्रपरिसमाप्तिको मंगलका प्रयोजन बताया है । - प्रकृतमें श्रा० गुणधर तथा यतिवृषभने कषायपाहुड और चूर्णिसूत्रके आदिमें मंगल नहीं किया है। इसके विषयमें वीरसेनस्वामी लिखते हैं कि यह ठीक है कि मंगल विघ्नोपशमनके लिए किया जाता है परन्तु परमागमके उपयोगसे ही जब विघ्नोपशान्ति हो जाती है तब उसके लिए मंगल करनेकी ही कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। क्योंकि परमागमका उपयोग विशुद्धकारण, विशुद्धकार्य तथा विशुद्धस्वरूप होनेसे कर्मनिर्जराका कारण है अतः विघ्नकर कर्मों की निर्जरा मंगलके बिना भी इस विशुद्ध परमागमके उपयोगसे ही हो जाती है और इसी तरह विघ्न भी उपशान्त हो जाते हैं। अतः शुद्धनयकी दृष्टिसे विशुद्ध उपयोगके प्रयोजक कार्यों में मंगल करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने शब्दानुसारी तथा प्रमाणानुसारी शिष्यों में देवताविषयक भक्ति उत्पन्न करनेको भी मंगलका प्रयोजन नहीं माना है। इस तरह वीरसेन स्वामीने मंगलके अनेक प्रयोजनों में विघ्नोपशमको ही मंगलका खास प्रयोजन माना है और उसमें उन्होंने गीतमस्वामी और गुणधर भट्टारकके अभिप्राय इस प्रकार दिए हैं (२) दोनोंके ही मतमें निश्चयनयसे परमागम उपयोग जैसे विशुद्ध कार्यों में पृथक मंगल करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये कार्य कर्मोंकी निर्जराके कारण होनेसे स्वयं मंगलरूप हैं। (२) गौतमस्वामी व्यवहारनयसे व्यवहारी जीवोंकी प्रवृत्तिको सुचारु रूपसे चलानेके लिए सोना खाना जाना शास्त्र रचना आदि सभी क्रियाओंके आदिमें मंगल करनेकी उपयोगिता स्वीकार करते हैं। (३) पर, गुणधर भट्टारकका यह अभिप्राय है कि जो क्रियाएँ स्वयं मंगलरूप नहीं हैं उनके आदिमें मंगल फलकी प्राप्तिके लिए व्यवहारनयसे मंगल करना ही चाहिए, परन्तु जो शास्त्रप्रारम्भ आदि मांगलिक क्रियाएँ स्वयं मंगलरूप हैं और जिनमें मंगलका फल अवश्य हो प्राप्त होनेवाला है उनमें व्यवहारनयकी दृष्टिसे भी मंगल करनेकी कोई खास आवश्यकता नहीं है। अतः गुणधर भट्टारक तथा यतिवृषभ आचार्यने विशुद्धोपयोगके प्रयोजक इन परमागमोंके आदिमें निश्चय तथा व्यवहार दोनों ही दृष्टियांसे मंगल करनेकी कोई खास आवश्यकता नहीं समझी है और इसीलिए इनके आदिमें मंगल निबद्ध नहीं है। (१) जयधवला० पू०५-९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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