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________________ ८८ जयधवलासहित कषायप्राभृत का गुणगानरूपी मंगल समस्तविघ्नोंको उसीप्रकार नाश कर देता है जैसे सूर्य अन्धकारको । इसके सिवाय उन्होंने और भी लिखा है कि शास्त्रमें आदि मंगल इसलिए किया जाता है जिससे शिष्य संरलतासे शास्त्रके पारगामी हो जाँय । मध्यमंगल निर्वित्र विद्याप्राषिके लिए तथा अन्तमंगल विद्याफलकी प्राप्तिके लिए किया जाता है। इनके मतसे विघ्नविनाशके साथ ही साथ शिष्योंकी शास्त्रपारिगामिताकी इच्छा भी मंगलकी प्रयोजनकोटिमें आती है । दशवकालिकनियुक्ति (गा०२) में त्रिविध मंगल करनेका विधान है। विशेषावश्यकभाष्यमें (गा०१२-१४) मंगलके प्रयोजनोंमें विघ्नविनाश और महाविद्याकी प्राप्तिके साथही साथ आदिमंगलका प्रयोजन निविघ्नरूपसे शास्त्रका पारगामी होना, मध्यमंगलका प्रयोजन आदिमंगलके प्रसादसे निर्विघ्न समाप्त शास्त्रकी स्थिरताकी कामना तथा अन्तमंगलका प्रयोजन शिष्य प्रशिष्य परिवारमें शास्त्रकी आम्नायका चालू रहना बताया है। बृहत्कल्पभाष्यमें (गा० २०) मंगलका प्राथमिक प्रयोजन विघ्नविनाश लिखकर फिर शिष्यमें शास्त्रके प्रति श्रद्धा आदर, उपयोग निर्जरा सम्यग्ज्ञान भक्ति प्रभावना आदि अनेक रूपसे प्रयोजनपरम्परा बताई गई है । तार्किक ग्रन्थों में हरिभद्रसूरि अनेकान्तजयपताका (पृ० २) में मंगल करने का हेतु शिष्टसमयपालन और विघ्नोपशान्ति लिखते हैं। सन्मतितर्कटीका (पृ० १) में शिष्यशिक्षा भी मंगलके प्रयोजनरूपसे संगृहीत है। विद्यानन्द स्वामी श्लोकवातिक (१० १-२) में नास्तिकतापरिहार, शिष्टाचारपरिपालन, धर्मविशेषोत्पत्तिमलक अधर्मध्वंस और उससे होनेवाली निर्विघ्न शास्त्रपरिसमाप्ति आदि को माँगलिक प्रयोजन मानकर भी लिखते हैं कि शास्त्रके आदिमें मंगल करनेसे ही विघ्नध्वंस आदि होते हों ऐसा नियम नहीं है । ये प्रयोजन तो स्वाध्याय आदि अन्य हेतुओंसे भी सिद्ध सकते हैं। शास्त्रमें मोक्षमार्गका समर्थन किया है इससे नास्तिकताका परिहार किया जा सकता है, शास्त्रस्वाध्याय करके शिष्टाचार पाला जा सकता है। पात्रदान आदिसे पुण्यप्राप्ति पापप्रक्षय और निर्विघ्न कार्यपरिसमाप्ति हो सकती है। अतः इन प्रयोजनों की सिद्धिके लिए शास्त्रके प्रारम्भमें परापरगुरुप्रवाहका नमस्काररूप मंगल ही करना चाहिए यह नियम नहीं बन सकता। इस तरह उन्होंने उक्त प्रयोजनों को माँगलिक मानकर भी मात्रमंगलजन्य ही नहीं माना है। अन्तमें वे अपना सहज तार्किक विश्लेषण कर लिखते हैं कि देखो उक्त सभी प्रयोजन तो अन्य पात्रदान स्वाध्याय आदि कार्योंसे सिद्ध हो जाते हैं इसलिए शास्त्रके प्रारम्भमें परापरगुरुप्रवाह का स्मरण उनके प्रति कृतज्ञताज्ञापनके लिए किया जाता है। क्योंकि ये ही मूलतः शास्त्रकी उत्पत्तिमें निमित्त हैं तथा इन्हींके प्रसादसे शास्त्रके गहनतम अर्थोका निर्णय होता है। अतः प्रकृतग्रन्थकी सिद्धिमें चूंकि परापरगुरु निमित्त हैं अतः उनका स्मरण करना प्रत्येक कृतीके लिए प्रथम कर्तव्य है । उन्होंने इसका सुन्दर कार्यकारणभाव बतानेवाला यह श्लोक उद्धृत किया है "अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धेन हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥" अर्थात् इष्टसिद्धि का प्रधान कारण सम्यग्ज्ञान है। वह सुबोध शास्त्रसे होता है तथा शास्त्र की उत्पत्ति प्राप्तसे होती है अतः शास्त्रके प्रसादसे जिन्होंने सम्यग्ज्ञान पाया है उनका कर्तव्य है कि उपकारस्मणार्थ वे प्राप्तकी पूजा करें। अतः शास्त्रके आदिमें आप्तके स्मरण रूप मंगलका प्रधान प्रयोजन कृतज्ञताज्ञापन है। वादिदेवसूरिने (स्याद्वादरत्ना० पृ० ३) में तत्त्वार्थश्लोकवातिकको पद्धतिसे ही मंगलका प्रयोजन बताया है। तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें मंगलके अन्य प्रयोजनोंके साथ ही साथ "नास्तिकतापरिहार'को भी एक प्रयोजन अन्य आचार्यके मतसे (१) आप्तप० पृ० ३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001407
Book TitleKasaypahudam Part 01
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Mahendrakumar Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1944
Total Pages572
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Karma, H000, & H999
File Size14 MB
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