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________________ छक्खंडागमे जीवदाण [ १, ९-१, १४. जो बोधो सो अहिणिबोधो । अहिणिबोध एव आहिणिबोधियणाणं'। एत्थ णाणं विसेसिज्जमाणं, तस्स सामण्णरूवत्तादो। आहिणियोहियं विसेसणं, अण्णेहितो ववच्छेदकारित्तादो । तेण ण पुणरुत्तदोसो ढुक्कदे । तं च आहिणिबोहियणाणं चउबिहं, अबग्गहो ईहा अबाओ धारणा चेदि । विषय-विषयिसंपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः । विसओ बाहिरो अट्ठो, विसई इंदियाणि । तेसिं दोण्हं पि संपादो णाम णाणजणणजोग्गावत्था, तदणंतरमुप्पण्णं णाणमवग्गहो । सो वि अवग्गहो दुविहो, अत्थावग्गो वंजणावग्गहो चेदि । तत्थ अप्पत्तत्थग्गहणमत्थावग्गहो, जधा चक्खिदिएण । पत्तत्थग्गहणं वंजणावग्गहा, जधा फस्सिदिएण । प्रकारके अभिमुख और नियमित पदार्थों में जो बोध होता है, वह अभिनिबोध है। अभिनिबोध ही आभिनिबोधक ज्ञान कहलाता है । यहांपर 'ज्ञान' यह विशेष्य पद है, क्योंकि, वह सामान्यरूप है। ' आभिनिबोधिक' यह विशेषण पद है, क्योंकि, वह अन्य शानोंसे व्यवच्छेद करता है। इसलिए दोनों पदोंके देनेपर भी पुनरुक्त दोष नहीं आता है। वह आभिनिबोधिक शान अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाके भेदसे चार प्रकारका है । विषय और विषयीके योग्य देशमें प्राप्त होनेके अनन्तर आद्य ग्रहणको अवग्रह कहते हैं। बाहरी पदार्थ विषय है, और इन्द्रियां विषयी कहलाती है। इन दोनोंकी ज्ञान उत्पन्न करनेके योग्य अवस्थाका नाम संपात है । विषय और विषयीके संपातके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अवग्रह कहलाता है । वह अवग्रह भी दो प्रकारका है-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह । उनमें अप्राप्त अर्थात् अस्पृष्ट अर्थके ग्रहण करनेको अर्थावग्रह कहते हैं, जैसे चक्षुरिन्द्रियके द्वारा रूपको ग्रहण करना । प्राप्त अर्थात् स्पृष्ट अर्थके ग्रहणको व्यंजनावग्रह कहते हैं, जैसे स्पर्शनेन्द्रियके द्वारा स्पर्शको ग्रहण १ अत्थाभिमुहो निअओ बोहो जो सो मओ अभिणिबोहो । सो चेवाऽऽभिणिबोहिअमहब जहाजोग्गमाउज्जं ॥ तं तेण तओ तम्मि व सो वाऽभिणिबुज्झए तओ वा तं । वि. आ. भा. ८०-८१. २ अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः। अवग्रहो विशेषाकांक्षेहाऽवायो विनिश्चयः ॥ धारणा स्मृतिहेतुस्तन्मतिज्ञानं चतुर्विधम् । लघीय. का. ५-६. ३ स. सि. १, १५.; त. रा. वा. १, १५; लघीय. स्वो. वि., पृ. २. पं. २१. अक्षार्थयोगजाद्वस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् । जातं यद्वस्तुभेदस्य ग्रहणं तदवग्रहः ।। त. श्लो. वा. १, १५, २०. ४ विषयस्तावत् द्रव्यपर्यायात्मार्थः विषयिणो द्रव्यमावेन्द्रियस्य । लघीय. वो. वि., पृ. २, पं. २१-२२. ५ वेंजणअत्थअवग्गहभेदा हु हवंति पत्तपत्तत्थे । कमसो ते वावरिदा पढमं ण हि चक्खुमणसाण ॥ गो. जी. ३०६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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