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________________ १,९-८, १६.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए किट्टीकरणविहाणं [ ३७५ ओकट्टिदूण मायाकिट्टीओ करेदि । लोभादो ओकट्टिदूण लोभकिट्टीओ करेदि । एदाओ सव्वाओ वि चउविहाओ किट्टीओ एगफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो। ___ पढमसमयणिव्यत्तिदाणं किट्टीण तिव्वमंददाए अप्पाबहुअं वत्तइस्सामा । तं जहा- लोभस्स जहणिया किट्टी थोवा। विदियकिट्टी अणंतगुणा । एवमणंतगुणाए सेडीए णेयव्वं जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । तदो विदियाए संगहकिट्टीए जहणिया किट्टी अणंतगुणा । एसो गुणगारो बारसण्हं पि संगहकिट्टीणं सत्थाणगुणगारेहिंतो अणंतगुणो । विदियाए संगहकिट्टीए सो चेव कमो जो पढमाए संगहकिट्टीए । तदो पुण विदियाए तदियाए च संगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव । एवमेदाओ लोभस्स तिण्णि संगहकिट्टीओ । लोभस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा चरिमकिट्टी तदो मायाए जहणिया किट्टी अणंतगुणा । मायाए वि तेणेव कमेण तिणि संगहकिट्टीओ । मायाए जा तदियसंगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो माणस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा । माणस्स वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। माणस्स जा तदिया संगहकिट्टी तिस्से चरिमादो किट्टीदो कोधस्स जहणिया किट्टी अणंतगुणा। कोधस्स वि तेणेव कमेण तिण्णि संगहकिट्टीओ। कोधस्स तदियाए संगहकिट्टीए जा करता है। लोभसे प्रदेशाग्रका अपकर्षणकर लोभकृष्टियोंको करता है। ये सब चारों प्रकारकी कृष्टियां गणनासे एक स्पर्धककी वर्गणाओंके अनन्तवें भागप्रमाण है। प्रथम समयमें निर्वर्तित कृष्टियोंके तीव्र-मन्दतासे अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है-लोभकी जघन्य कृष्टि स्तोक है। द्वितीय कृष्टि अनन्तगुणी है। इस प्रकार अनन्तगुणित श्रेणीसे प्रथम संग्रहकृष्टिको अन्तिम कृष्टि तक ले जाना चाहिये। उस प्रथम संग्रहकृष्टिकी अन्तिम कृष्टिसे द्वितीय संग्रहकृष्टिकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी है। यह गुणकार बारह ही संग्रहकृष्टियोंके स्वस्थानगुणकारोंसे अनन्तगुणा है। प्रथम संग्रहकृष्टिमें जो क्रम है वही द्वितीय संग्रहकृष्टिमें है। इससे आगे द्वितीय और तृतीय संग्रहकृष्टियोंका अन्तर प्रथम और द्वितीय संग्रहकृष्टियोंके अन्तर समान ही है। इस प्रकार ये लोभकी तीन संग्रहकृष्टियां हैं। लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी जो अन्तिम कृष्टि है उससे मायाकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होती है । मायाकी भी उसी क्रमसे तीन संग्रहकृष्टियां हैं । मायाकी जो तृतीय संग्रहकृष्टि है उसकी अन्तिम कृष्टिसे मानकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणित होती है। मानकी भी उसी क्रमसे तीन संग्रहकृष्टियां हैं। मानकी जो तृतीय संग्रहकृष्टि है उसकी अन्तिम कृष्टिसे क्रोधकी जघन्य कृष्टि अनन्तगुणी होती है। क्रोधकी भी उसी क्रमसे तीन संग्रहकृष्टियां होती हैं। क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी जो अन्तिम १ कोहादीणं सगसगपुव्वापुव्वगयफड्डयेहितो । उक्कट्टिदूण दव्वं ताणं किट्टी करेदि कमे ॥ धि. ४९१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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