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________________ ३३० ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ९-८, १४. यस्स णवविहबंधगो जादो । ताधे चेत्र हस्स-रदि- अरदि- सोगाणमेक्कदरस्स संघादयस् उदीरगो, सिया भय- दुर्गुछाणमुदीरओ । तदो अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जदिभागे गढ़े तदो परभवियणामाणं वंधगो जादो । तदो विदिबंध - सहस्सेहि गदेहि अपुच्वकरणद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु णिद्दा- पयलाओ बंधदि । दो संखेज्जेसु ट्ठिदिबंधसहस्सेसु गदेसु चरिमसमयअपुव्त्रकरणं पत्तो । से काले पढमसमयअधापवत्ता जादो । दो पढमसमयअधापवत्तस्स अण्णो गुणसेडिणिक्खेवा पोराणियादो गुणसे डिणिक्खेवादा संखेज्जगुणो' । ओयरमाणसुहुमसांपराइयपढमसमयादो अपुव्वकरणो त्ति ताव सेसे सेसे णिक्खेवो । जो पढमसमयअधापवत्तकरणे णिक्खेवो अंतोमुहुत्तिओ तत्तिओ चैव । तेण परं सिया वढदि सिया हायदि सिया अवट्ठायदि । पढमसमयअधापवत्त करणे गुणसंकमो वोच्छिष्णो सव्वकम्माणं अधापवत्तसंकमो जादो । 1 मोहनीयका बन्धक होता है । उसी समय हास्य व रति तथा अरति व शोक, इनमें से किसी एक संघातका उदीरक होता है। कदाचित् भय और जुगुप्साका उदीरक होता है। पश्चात् अपूर्वकरणकालका संख्यातवां भाग वीतनेपर तब परभविक नामकर्मों अर्थात् देवगति आदि तीस या सत्ताईस प्रकृतियोंका बन्धक हो जाता है । तत्पश्चात् स्थितिबन्धसहस्रोंके वीतनेसे अपूर्वकरणकालके संख्यात बहुभागोंके व्यतीत होनेपर निद्रा व प्रचला प्रकृतियों को बांधता है । पुनः संख्यात स्थितिबन्धसहस्रोंके वीत जानेपर अपूर्वकरणके अन्त समयको प्राप्त होता है । अनन्तर समय में प्रथमसमयवर्ती अधःप्रवृत्तकरण हो जाता है । तब अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में अन्य गुणश्रेणिनिक्षेप पूर्व गुणश्रेणिनिक्षेप से संख्यातगुणा होता है । उतरते हुए सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम समय से लेकर अपूर्वकरण के अन्तिम समय तक शेष शेषमें निक्षेप होता है । अधःप्रवृत्तकरण के प्रथम समय में जो अन्तर्मुहूर्तमात्र निक्षेप है उतना ही अन्तर्मुहूर्ततक रहता है । उसले आगे कदाचित् बढ़ता है, कदाचित् हानिको प्राप्त होता है, और कदाचित् अवस्थित रहता है । अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समय में गुणसंक्रमण नष्ट हो जाता है और सब कर्मोंका अधःप्रवृत्त १ पढमो अधापवतो गुणसेढिमवट्टिदं पुराणादो । संखगुणं तच्चंतोमुहुत्तमेत्तं करेदी हु | लब्धि. ३४३. २ प्रतिषु पदमसमयअपुव्वकरणादो चि' इति पाठः । ३ ओदरहुमादोदो अपुव्वचरिमोत्ति गलिदसेसे व । गुणसेढीणिक्खेवो सट्टाणे होदि तिट्ठाणं ॥ " लब्धि. ३४४. ४ सट्टा तावदियं संखगुणूणं तु उवरि चडमाणे । विरदाविरदाहिमुहे संखेज्जगुणं तदो तिविहं ॥ लब्धि. ३४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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