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________________ ३२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ९-८, १४. दसणावरणीय-वेदणीय-अंतराइयाणं ठिदिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ। एवं संखेज्जाणि ठिदिबंधसहस्साणि गदाणि । तदो अण्णो द्विदिबंधो एक्कसराहेण णामा-गोदाणं थोत्रो । मोहणीयस्स हिदिबंधो विसेसाहिओ । णाणावरण-दसणावरण-वेदणीय अंतराइयाणं ठिदिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ । एदेण कमेण ट्ठिदिबंधसहस्साणि बहूणि गदाणि । तदो अण्णो विदिबंधो एक्कसराहेण णामा-गोदाणं थोवो । चउण्हं कम्माणं ठिदिबंधो तुल्लो विसेसाहिओ। मोहणीयस्स द्विदिबंधो विसेसाहिओ'। जत्तो पाए असंखेज्जवस्सद्विदिओ बंधो तत्तो पाए पुण्गे पुण्णे हिदिबंधे अण्णं द्विदिबंधमसंखेज्जगुग बंधदि । एदेण कमेण सत्तण्हं पि कम्माणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागिगादो द्विदिबंधादो एक्कसराहेण पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागिगो ठिदिबंधो जादो । तत्तो पाए पुण्णे पुण्णे ठिदिवंधे अण्णं द्विदिबंधं संखेज्जगुणं बंधदि । एवं संखेज्जाणं ट्ठिदिबंधसहस्साणमपुव्वा वड्डी पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो। तदो मोहणीयस्स अण्णस्स विदिबंधस्स अपुव्वा वड्डी पलिदोवमस्स संखेज्जा भागा जादा। ताधे चदुण्डं कम्माणं द्विदिबंधस्स बड्डी दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इनका स्थितिबन्ध तुल्य विशेष अधिक होता है। इस प्रकार संख्यात स्थितिबन्धसहस्र वीत जाते हैं। तब अन्य स्थितिबन्ध एक साथ नाम व गोत्र कर्मोंका स्तोक, मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक, तथा ज्ञाना वरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय, इनका स्थितिबन्ध तुल्य विशेष अधिक होता है। इस क्रमसे बहुत स्थितिबन्धसहस्र वीत जाते हैं। तत्पश्चात् अन्य स्थितिबन्ध एक साथ नाम व गोत्र कर्मोका स्तोक, चार कर्मोंका स्थितिबन्ध तुल्य विशेष अधिक, और मोहनीयका स्थितिबन्ध विशेष अधिक होता है। जहांसे लेकर असंख्यात वर्षमात्र स्थितिवाला बन्ध होता है वहांसे लेकर प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य असंख्यातगुणे स्थितिबन्धको बांधता है। इस क्रमसे सातों कर्मोंका पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिबन्धसे एक साथ पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबन्ध होने लगता है। वहांसे लेकर प्रत्येक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्य संख्यातगुणे स्थितिबन्धको बांधता है। इस प्रकार संख्यात स्थितिबन्धसहस्रोंकी अपूर्व वृद्धि पल्योपमके संख्यातवें भागमात्र होती है । पश्चात् मोहनीयके स्थितिबन्धकी अपूर्व वृद्धि पल्योपमके संख्यात बहुभागमात्र होती है। उस समयमें चार कर्मोंके स्थितिबन्धके साधिक चतुर्थ भागसे हीन पल्योपम १ मोहं वासिय तीसिय तो वीसिय मोहतीसयाण कमं । वीसिय तीसिय मोहं अप्पाबहुगं तु अविरुद्धं ॥ लब्धि. ३३५. २ जत्तोपाये होदि हु असंखवस्सप्पमाणठिदिबंधो । तत्तोपाये अण्णं ठिदिबंधमसंखगुणियकमं ॥ लब्धि. ३३७. ३ एवं पल्लासंखं संखं भागं च होइ बंधेण । एत्तोपाये अण्णं ठिदिबंधो संखगुणियंकम ॥ लब्धि. ३८३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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