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________________ १, ९-८, १४.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए पडिवदणविहाणं [३१९ मुहुत्ता'। से काले गुणसेडी असंखेज्जगुणहीणा । द्विदिबंधो सो चैव । अणुभागबंधो अप्पसत्थाणमणतगुणो, पसत्थाणं कम्माणमणंतगुणहीणों। लोभं वेदयमाणस्स इमाणि आवासयाणि परूवंति। तं जहा- लोभवेदगद्धाए पढम-तिभागे किट्टीणमसंखेज्जा भागा उदिण्णा । पढमसमए उदिण्णाओ किट्टीओ थोवाओ । विदियसमए उदिण्णाओ किट्टीओ विसेसाहियाओ। सविस्से सुहुमसांपराइयद्धाए विसेसाहियवड्डीए किट्टीणमुदओ। किट्टीणं वेदगद्धाए गदाए पढमसमयबादरसांपराइओ जादो । ताधे चेव मोहणीयस्स अणाणुपुवसिंकमों' । ताधे चेव दुविहो लोभो लोभसंजुलणे संछुहदि । ताधे चेव फद्दयगयलोभं वेदयदि । किट्टीओ सव्वाओ गट्ठाओ । णवरि जाओ उदयावलियभंतराओ ताओ थिउक्कसंकमेण फद्दएसु विपच्चिहिति । पढमसमयबादरसांपराइयस्स लोभसंजुलणस्स विदिबंधो अंतोमुहुत्तिओ। तिण्हं घादि ........... स्थितिबन्ध अड़तालीस मुहूर्तप्रमाण होता है। उस काल में गुणश्रेणी असंख्यातगुणी हीन होती है । स्थितिवन्ध वही होता है । अनुभागवन्ध अप्रशस्त कर्मीका अनन्तगुणा और प्रशस्त कर्मोका अनन्तगुणा हीन होता है। लोभका वेदन करनेवालेके ये आवास प्ररूपित किये जाते हैं। वह इस प्रकार है-लोभवेदककालके प्रथम त्रिभागमें कृष्टियोंका असंख्यात बहुभाग उदयको प्राप्त होता है । प्रथम समयमें उदयप्राप्त कृष्टियां स्तोक हैं। द्वितीय समयमें उदयप्राप्त कृष्टियां विशेष अधिक हैं। इस प्रकार समयक्रमसे सब सूक्ष्मसाम्परायिककालमें विशेषाधिक वृद्धिसे कृष्टियोंका उदय होता है। कृष्टियोंके वेदककालके समाप्त होनेपर प्रथमसमयवर्ती बादरसाम्परायिक हो जाता है । उस समयमें ही मोहनीयका आनुपूर्वीरहित संक्रमण होता है । उसी समय दो प्रकारके लोभको संज्वलनलोभमें स्थापित करता है । उसी समयमें ही स्पर्धकगत लोभका वेदन करता है। कृष्टियां सब नष्ट हो जाती हैं। विशेष इतना है कि जो कृष्टियां उदयावलीके भीतर हैं वे स्तिबुक संक्रमणद्वारा स्पर्धकोंमें विपाकको प्राप्त होती हैं। प्रथमसमयवर्ती बादरसाम्परायिकके संज्वलनलोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है। तीन घातिया कर्मोंका स्थितिबन्ध देशोन दो अहोरात्रमात्र १ ओदरसहुमादीए बंधो अंतोमुहुत्त बचीसं । अडदालं च मुहुत्ता तिघादिणामदुगवेयणीयाणं ॥ लब्धि. ३१३. २ गुणसेढीसत्थेदररसबंधो उवसमादु विवरीयं । पढमुदओ किट्टीणमसंखभागा विसेसअहियकमालब्धि.३१४. ३ अ-कप्रत्योः ‘आवासयाणि रूवंति' इति पाठः ४ प्रतिषु · अण्णाणुपुवीसं कमो' इति पाठः। ५ बादरपढमे किट्टी मोहस्स य आणुपुब्विसंकमणं । गहुँ ण च उच्छिद्रं फट्टयलोहं तु वेदरदि ॥ लब्धि. ३१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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