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________________ १, ९-८, १२.] चूलियाए सम्मत्तुप्पत्तीए खइयसम्मत्तुप्पादणं [ २५३ अपुव्यकरणपढमसमए जहण्णदिद्विसंतकम्मेण उवढिदस्स द्विदिखंडगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण उवट्टिदस्स सागरोवमपुधत्तमेतो ट्ठिदिखंडगो । पुव्वहिदिबंधादो जाओ ओसरिदाओ द्विदीओ ताओ पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो । अप्पसत्थाणं कम्माणमणुभागखंडयपमाणमणंता भागा अणुभागसंतकम्मस्स । गुणसेडी उदयावलियादो बाहिरा गलिदसेसा । विदियसमए एसो चेव द्विदिखंडओ, सो चेव . . अणुभागखंडओ, सो चेव द्विदिबंधो, गुणसेडी अण्णा । एवमंतोमुहुत्तं जाव अणुभागखंडओ पुण्णो । एवमणुभागखंडयसहस्सेसु पुण्णेसु अण्णं द्विदिखंडयं द्विदिबंधमणुभागखंडयं च पट्ठवेदि । पढमट्ठिदिखंडगो बहुओ, विदियट्ठिदिखंडगो विसेसहीणो, तदियद्विदिखंडगो विसेसहीणो । एवं पढमादो हिदिखंडयादो अपुवकरणद्धाए संखेजगुणहीणो वि द्विदिखंडओ अत्थि । एदेण कमेण डिदिखंडयसहस्सेहि बहूहि गदेहि अपुव्वकरणद्धाए चरिमसमयम्हि चरिमाणुभागखंडयउक्कीरणकालो द्विदिखंडयउक्कीरणकालो द्विदिवंधकालो च समगं समत्तो। चरिमसमयअपुरकरणे हिदिसंतकम्मं थोवं, पढमसमय अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य स्थितिसत्त्वके साथ उपस्थित जीवका स्थितिकांडक पल्योएमका संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके साथ उपस्थित जीवके सागरोपमपृथक्त्वमात्र स्थितिकांडक होता है। पूर्व स्थितिबन्धसे अर्थात् अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होनेवाले तत्प्रायोग्य अन्तःकोड़ाकोड़ीमात्र स्थितिबन्धसे जो स्थितियां अपसरण की गई हैं, वे पल्योपमके संख्यातवें भाग होती हैं। अप्रशस्त कर्माके अनुभागकांडकका प्रमाण अनुभागसत्त्वके अनन्त बहुभाग है। गुणश्रेणी उदयावलीसे बाह्य गलितशेष प्रमाण है । अपूर्वकरणके दूसरे समयमें यह उपर्युक्त ही स्थितिकांडक है, वही अनुभागकांडक है और वही स्थितिबन्ध है। किन्तु गुणश्रेणी अन्य होती है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तकाल तक एक अनुभागकांडक पूर्ण होता है। इस क्रमसे सहस्रों अनुभागकांडकोंके पूर्ण होने पर अन्य स्थितिकांडकको, अन्य स्थितिबन्धको और अन्य अनभागकांडकको प्रारम्भ करता है। प्रथम स्थितिकांडकका आयाम बहुत है, द्वितीय स्थितिकांडकका आयाम विशेष हीन होता है, तृतीय स्थितिकांडकका आयामोल हीन होता है। इस प्रकार प्रथम स्थितिकांडकसे संख्यातगणित हीन भी मिशन कांडकका आयाम अपूर्वकरणके कालमें होता है। इस क्रमसे अनेकों सहस्य मिशन कांडकोंके व्यतीत होनेपर अपूर्वकरणकालके अन्तिम समयमें अन्तिम अनुभागकांडकका उत्कीरणकाल, स्थितिकांडकका उत्कीरणकाल और स्थितिबन्धका काल, एक साथ समाप्त होता है । अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थितिसत्त्व अल्प है, और उसी १ प्रतिषु ' समयं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001400
Book TitleShatkhandagama Pustak 06
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1943
Total Pages615
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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