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१, ९-२, ३५. ]
चूलियाए द्वाणसमुक्कित्तणे मोहणीयं
[ ९५
तेरससु पयडीसु पच्चक्खाणचदुक्के अवणिदे णव पयडीओ हवंति । वदिरेगमुहेण णवपडिडाणं परूविय ' अन्वयव्यतिरेकाभ्यां वस्तुनिर्णयः' इति न्यायात् अण्णय मुहेण परूवणमुत्तरमुत्तं भणदि
चदुसंजुलणा पुरिसवेदो हस्सरदि- अरदिसोग दोन्हं जुगलाणमेक्कदरं भय-दुगुंछा । एदासिं णवण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं बंधमाणस्स ॥ ३३ ॥
सुगममेदं । भंगा दोणि ( २ ) । तं संजदस्स || ३४ ॥
संजदस्सेत्ति उत्ते पमत्तादि - अपुचंताणं संजदाणं गहणं, उवरि छण्णोकसायाणं धाभावादो णव द्वाणस्स संभवाभावा ।
तत्थ इमं पंचहं द्वाणं हस्सरदि-अरदिसोग भयदुगुंछं वज्ज
॥ ३५ ॥
पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियोंमेंसे प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्कके घटानेपर नौ प्रकृतियां होती हैं ।
व्यतिरेकमुखसे नौ प्रकृतिरूप बन्धस्थानको निरूपण करके 'अन्वय और व्यतिरेक से वस्तुका निर्णय होता है, इस न्यायके अनुसार अन्वयमुखसे उसी स्थानको निरूपण करनेके लिए उत्तर सूत्र कहते हैं
चारों संज्वलनकषाय, पुरुषवेद, हास्य- रति और अरति शोक इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल, भय और जुगुप्सा, इन नौ प्रकृतियों के बन्ध करनेवाले जीवका एक ही भाव में अवस्थान है ॥ ३३ ॥
इस सूत्रका अर्थ सुगम 'है | यहांपर हास्यादि दोनों युगलोंके विकल्प से (२) दो भंग होते हैं ।
वह नौ प्रकृतिरूप पंचम बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ३४ ॥
'संयत के ' ऐसा सामान्य पद कहने पर प्रमत्तसंयत से आदि लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक के संयतोंका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि उससे ऊपर छह नोकषायका बन्ध नहीं होता है, इसलिए वहांपर नौ प्रकृतिरूप बन्धस्थानका होना संभव नहीं है । मोहनीय कर्मसम्बन्धी उक्त दश बन्धस्थानों में पंचम बन्धस्थानकी नौ प्रकृतियोंमेंसे हास्य, रति, अरति, शोक, और जुगुप्साको छोड़ने पर यह पांच प्रकृतिरूप छठा बन्धस्थान होता है ।। ३५ ।
भय,
१ प्रतिषु ' - मेक्कं हि ' इति पाठः ।
२ दो दो हवंति छट्ठो चि । गो. क. ४६७.
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