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________________ (५८) कहा है ' एत्तो उत्तर- पडिवत्तिं वत्तइस्सामो ' और तत्पश्चात् संयतों की संख्या ६९९९९९९६ बतलाई है । यहां इनकी समीचीनताके विषय में कुछ नहीं कहा । दक्षिण-प्रतिपत्तिके अंतर्गत एक और मतभेदका भी उल्लेख किया गया है। कुछ आचार्येने उक्त संख्याके संबंध में जो शंका उठाई है उसका निरसन करके धवलाकार कहते हैं 'जं दूसणं भणिदं तण्ण दूसणं, बुद्धिविहूणाइरियमुह विणिग्गयत्तादो । ' अर्थात् 'जो दूषण कहा गया है वह दूषण नहीं है, क्योंकि वह बुद्धिविहीन आचार्योंके मुखसे निकली हुई बात है ' । संभव है वीरसेन स्वामीने किसी समसामयिक आचार्यकी शंकाको ही दृष्टिमें रखकर यह भर्त्सना की हो उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्ति भेदका तीसरा उल्लेख अन्तरानुगोगद्वार में आया है जहां तिर्यंच और मनुष्यों के सम्यक्त्व और संयमादि धारण करनेकी योग्यताके कालका विवेचन करते हुए लिखते हैं " 1 एत्थ वे उवदेसा, तं जहा - तिरिक्खेसु बेमासमुहुत्तपुत्तस्सुवरि सम्मतं संजमा संजम च जीवो पडिवज्जदि । मणुसेसु गन्भादिअट्टवस्सेसु अंतोमुहुत्तन्भहिएसु सम्मतं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदिति । एसा दक्खिणपडिवत्ती । दक्खिणं उज्जुवं आइरियपरंपरागदमिदि एयट्ठो । तिरिक्खेसु तिणि पक्ख तिण्णि दिवस अतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मतं संजमासजमं च पडिवज्जदि । मणुसेसु अवस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि । एसा उत्तरपडिवची, उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराए णागदमिदि एयट्ठो धवला. अ. ३३० इसका तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व और संयमासंयमादि धारण करनेकी योग्यता दक्षिण प्रतिपत्तिके अनुसार तिर्यंचों में ( जन्मसे) २ मास और मुहूर्तपृथक्त्वके पश्चात् होती है, तथा मनुष्योंमें गर्भसे ८ वर्ष और अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् होती है । किन्तु उत्तर प्रतिपत्ति के अनुसार तिचोंमें वही योग्यता ३ पक्ष, ३ दिन और अन्तर्मुहूर्तके उपरान्त, तथा मनुष्यों में ८ वर्षके उपरान्त होती है | धवलाकारने दक्षिण प्रतिपत्तिको यहां भी दक्षिण, ऋजु व आचार्य-परंपरागत कहा है और उत्तर प्रतिपत्तिको उत्तर, अनृजु और आचार्य - परम्परासे अनागत कहा है । I हमने इन उल्लेखका दूसरे उल्लेखोंकी अपेक्षा कुछ विस्तारसे परिचय इस कारण दिया है, क्योंकि, यह उत्तर और दक्षिण प्रतिपत्तिका मतभेद अत्यन्त महत्वपूर्ण और विचारणीय है । संभव है इनसे धवलाकारका तात्पर्य जैन समाजके भीतरकी किन्ही विशेष साम्प्रदायिक मान्यताओंसे ही हो ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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