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(३८) इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें वीरसेनद्वारा धवला और जयधवला टीका लिखे जानेका इसप्रकार वृत्तान्त दिया है । बप्पदेव गुरुद्वारा सिद्धान्त ग्रंथोंकी टीका लिखे जानेके कितने ही काल पश्चात् सिद्धान्तोंके तत्वज्ञ श्रीमान् एलाचार्य हुए जो चित्रकूटपुरमें निवास करते थे। उनके पास वीरसेन गुरुने समस्त सिद्धान्तका अध्ययन किया और ऊपरके निबन्धनादि आठ अधिकार लिखे । फिर गुरुकी अनुज्ञा पाकर वे वाटप्राममें आये और वहांके आनतेन्द्रद्वारा बनवाये हुए जिनालयमें ठहरे । वहां उन्हें व्याख्याप्रज्ञप्ति ( बप्पदेव गुरुकी बनाई हुई टीका) प्राप्त हो गई । फिर उन्होंने ऊपरके बन्धनादि अठारह अधिकार पूरे करके सत्कर्म नामका छठवां खण्ड संक्षेपसे तैयार किया और इसप्रकार छह खण्डोंकी ७२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत और संस्कृत पिश्रित धवला टीका लिखी। तत्पश्चात् कषायप्राभृतकी चार विभक्तियोंकी २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखनेके पश्चात् ही वे स्वर्गवासी हो गये । तब उनके शिष्य जयसेन (जिनसेन) गुरुने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर उसे पूरा किया । इसप्रकार जयधवला ६० हजार श्लोक-प्रमाण तैयार हुई।
वीरसेन स्वामीकी अन्य कोई रचना हमें प्राप्त नहीं हुई और यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनका समस्त सज्ञान अवस्थाका जीवन निश्चयतः इन सिद्धान्त ग्रंथोंके अध्ययन, संकलन और टीका-लेखनमें ही बीता होगा । उनके कृतज्ञ शिष्य जिनसेनाचार्यने उन्हें जिन विशेषणों और पदवियोंसे अलंकृत किया है उन सबके पोषक प्रमाण उनकी धवला और जयधवला टीकामें प्रचुरतासे पाये जाते हैं । उनकी सूक्ष्म मार्मिक बुद्धि, अपार पाण्डित्य, विशाल स्मृति और अनुपम व्यासंग उनकी रचनाके पृष्ठ पृष्ठ पर झलक रहे हैं। उनकी उपलभ्य रचना ७२ + २० = ९२ हजार श्लोक प्रमाण है। महाभारत शतसाहस्री अर्थात् एक लाख श्लोक-प्रमाण होनेसे संसारका सबसे बड़ा काव्य समझा जाता है। पर वह सब एक व्यक्ति की रचना नहीं है। वीरसेनकी रचना मात्रामें शतसाहस्री महाभारतसे थोड़ी ही कम है, पर वह उन्हीं एक व्यक्तिके परिश्रमका फल
१. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी । श्रीमानेलाचार्यों बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ १७७ ॥ सस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमभिबन्धनाधिकारानष्ट च लिलेख ॥ १७८ ।। आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान्गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चालानतेन्द्रकृतजिमगृहे स्थित्वा ।। १७९ ॥ ध्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितमबन्धनाधिकारष्टादशविकल्पैः ॥ १८० ॥ सत्कर्ममामधेर्य षष्ठं खण्ड विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां ग्रंथसहद्विसप्तत्या ।। १८१ ॥ प्राकृत-संस्कृप्त-भाषा-मिश्रा टीका विलिख्य धवलाख्याम् । जयधवला च कषायप्राभृतके चतसा
विभक्तीनाम् ।। १८२ ।। विशतिसहस्रसदग्रंथरचनया संयुता विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिभ्यो जयसेन (जिनसेन)
गुरुमामा ।। १८३ ।। तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रैः समापितवान् । जयधवलैवं षष्टिसहस्रग्रंथोऽभवदीका ॥ १८४ ॥
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