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________________ ( ३३ ) किन्तु विक्रम संवत् के प्रारम्भके सम्बन्धमें प्राचीन कालसे बहुत मतभेद चला आ रहा है जिसके कारण वीरनिर्वाण कालके सम्बन्ध में भी कुछ गड़बड़ी और मतभेद उत्पन्न हो गया है । उदाहरणार्थ, जो नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली ऊपर उद्धृत की गई है उसमें वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म हुआ, ऐसा कहा गया है, और चूंकि ४७० वर्षका ही. अन्तर प्रचलित निर्वाण संवत् और विक्रम संवत् में पाया जाता है, इससे प्रतीत होता है कि विक्रम संवत् विक्रमके जन्मसे ही प्रारम्भ हो गया था । किन्तु मेरुतुंगकृत स्थविरावली' तपागच्छ पट्टावली, जिनप्रभसूरिकृत पावापुरीकल्प, प्रभाचन्द्रसूरिकृत प्रभावकचरित आदि ग्रंथोंमें उल्लेख हैं कि विक्रम संवत् का प्रारम्भ विक्रम राजाके राज्यकालसे या उससे भी कुछ पश्चात् प्रारम्भ हुआ । ३ श्रीयुत् बैरिस्टर काशीप्रसादजी जायसवालने इसी मतको मान देकर निश्चित किया कि चूंकि जैन ग्रंथोंमें ४७० वर्ष पश्चात् विक्रमका जन्म हुआ कहा गया है और चूंकि विक्रमका राज्यारंभ उनकी १८ वर्षकी आयुमें होना पाया जाता है, अतः वीर निर्वाणका ठीक समय जाननेके लिये ४७० वर्षमें १८ वर्ष और जोड़ना चाहिये अर्थात् प्रचलित विक्रम संवत्से ४८८ वर्ष पूर्व महावीरका निर्वाण हुआ । एक और तीसरा मत हेमचंद्राचार्य के उल्लेखपरसे प्रारम्भ हो गया है । हेमचन्द्रने अपने परिशिष्ट पर्वमें कहा है कि महावीरकी मुक्ति से १५५ वर्ष जाने पर चन्द्रगुप्त राजा हुआ। यहां उनका तात्पर्य स्पष्टतः चन्द्रगुप्त मौर्यसे है । और चूंकि चन्द्रगुप्त से लगाकर विक्रमतक का सर्वत्र २५५ वर्ष पाया जाता है, अतः वीर निर्वाणका समय विक्रमसे २५५ + १५५ = ४१० वर्ष पूर्व ठहरा। इस मतके अनुसार ४७० मेंसे ६० वर्ष घटा देनेसे ठीक विक्रम पूर्व वीर निर्वाण काल ठहरता है । पाश्चिमिक विद्वानों, जैसे डॉ. याकोबी " डॉ. चापेंटियर' आदिने इसी मत का प्रतिपादन किया है और इधर मुनि कल्याणविजयजीने ' भी इसी मतकी पुष्टि की है । ४ १. विक्रम- रज्जारंभा पुरओ सिरि-वीर- णिव्वुई भणिया । सुन्न - मुणि-वेय- जुत्तो विक्कम- कालाउ जिणकालो ॥ (मेरुतुंग- स्थविरावली ) २. तद्राज्यं तु श्रीवीरात् सप्तति वर्ष शत-चतुष्टये ४७० संजातम् । ( तपागच्छ पट्टावली ) ३. मह मुक्ख-गमणाओ पालय- नंद- चंदगुत्ताइ - राईसु वोलीणेसु चउसयसत्तरेहिं वासेहिं विकमाइच्चो राया होही । ( जिनप्रभसूरि-पावापुरीकल्प ) ४. इतः श्रीविक्रमादित्यः शास्त्यवन्तीं नराधिपः । अनृणां पृथिवीं कुर्वन् प्रवर्तयति वत्सरम् ॥ ( प्रभाचन्द्रसूरि प्रभावकचरित ) ५. Bihar and Orissa Research Society Journal, 1915. ६. एवं च श्रीमहावीरमुक्तेर्वर्षशते गते । पंचपंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ॥ (परिशिष्ट - पर्व ) ७. Sacred books of the East XXII. ८. Indian Antiquary XLIII. ९. वीर निर्वाण संवत् और जैनकालगणना, ' संवत् १९८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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