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१, १, १३६.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे लेस्सामग्गणापरूवर्ण [३८७ कषायस्तावुभौ वा ? किं चातो नाद्यौ विकल्पौ योगकषायमार्गणयोरेव तस्या अतभावात् । न तृतीयविकल्पस्तस्यापि तथाविधत्वात् । न प्रथमद्वितीयविकल्पोक्तदोषावनभ्युपगमात् । न तृतीयविकल्पोक्तदोषो द्वयोरेकस्मिन्नन्तर्भावविरोधात् । न द्वित्वमपि कर्मलेपैककार्यकर्तृत्वेनैकत्वमापन्नयोर्योगकषाययोर्लेश्यात्वाभ्युपगमात् । नैकत्वात्तयोरन्तर्भवति द्वयात्मकैकस्य जात्यन्तरमापन्नस्य केवलेनैकेन सहैकत्वसमानत्वयोर्विरोधात् । योगकषायकार्याद्वयतिरिक्तलेश्याकार्यानुपलम्भान्न ताभ्यां पृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगकषायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालम्बनाचार्यादिबाह्यार्थसन्निधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां संसारवृद्धिकार्यस्य
जाती है ' इस वचनका व्याघात हो जाता है।
शंका-लेश्या योगको कहते हैं, अथवा, कषायको कहते हैं, या योग भौर कषाय दोनोंको कहते हैं ? इनमेंसे आदिके दो विकल्प अर्थात् योग या कषायरूप लेश्या तो मान नहीं सकते, क्योंकि, वैसा माननेपर योगमार्गणा और कषायमार्गणामें ही उसका अन्तर्भाव हो जायगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते हैं, क्योंकि, तीसरा विकल्प भी आदिके दो विकल्पोंके समान है। अर्थात् तीसरे विकल्पके माननेपर भी लेश्याका उक्त दोनों मार्गणाओंमें अथवा किसी एक मार्गणामें अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिये लेश्याकी स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध नहीं होती है?
समाधान- शंकाकारने जो ऊपर तीन विकल्प उठाये हैं उनमेंसे पहले और दूसरे विकल्पमें दिये गये दोष तो प्राप्त ही नहीं होते हैं, क्योंकि, लेश्याको केवल योग और केवल कषायरूप माना ही नहीं है। उसीप्रकार तीसरे विकल्पमें दिया गया दोष भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, योग और कषाय इन दोनोंका किसी एकमें अन्तर्भाव माननेमें विरोध आता है। यदि कहा जाय कि लेश्याको दोरूप मान लिया जाय जिससे उसका योग और कषाय इन दोनों मार्गणाओं में अन्तर्भाव हो जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, कर्मलेपरूप एक कार्यको करनेवाले होनेकी अपेक्षा एकपने को प्राप्त हुए योग और कषायको लेश्या माना है। यदि कहा जाय कि एकताको प्राप्त हुए योग और कषायरूप लेश्या होनेसे उन दोनों में लेश्याका अन्तर्भाव हो जायगा, सो भी कहना ठीक नहीं है. क्योंकि, दो धर्मोंके संयोगसे उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव किसी एक तीसरी अवस्थाको प्राप्त हुए किसी एक धर्मका केवल एकके साथ एकत्व अथवा समानता मान लेनेमें विरोध आता है।
... शंका-योग और कषायके कार्यसे भिन्न लेश्याका कार्य नहीं पाया जाता है, इसलिये उन दोनसे भिन्न लेश्या नहीं मानी जा सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, विपरीतताको प्राप्त हुए मिथ्यात्व अविरत आदिके आलम्बनरूप आचार्यादि बाह्य पदार्थोके संपर्कसे लेश्याभावको प्राप्त हुए योग और कषायोंसे, केवल योग और केवल कषायके कार्यसे भिन्न संसारकी वृद्धिरूप कार्यकी उपलब्धि होती
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