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१, १, १३१.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे दसणमग्गणापरूवणं
[ ३८१ म्भात् । प्रकाशते च रूपसामान्यविशेषविशिष्टार्थः । न स दर्शनमर्थस्यापयोगरूपत्वविरोधात् । न तस्योपयोगोऽपि दर्शनं तस्य ज्ञानरूपत्वात् । ततो न चक्षुदेशनमिति न, चक्षुर्दर्शनावरणीयस्य कर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेराधार्याभावे आधारकस्याप्यभावात् । तस्माचक्षुदर्शनमन्तरङ्गविषयमित्यङ्गीकर्तव्यम् । किं च निद्रानिद्रादीनि कर्माणि न ज्ञानप्रतिबन्धकानि ज्ञानावरणाभ्यन्तरे तेषामपाठात् । नान्तरङ्गबहिरङ्गार्थविषयोपयोगद्वयप्रतिबन्धकानि एवमपि ज्ञानावरणस्यैवान्तर्भावात् । नान्तरङ्गबहिरङ्गार्थविषयोपयोगसामान्यप्रतिबन्धकानि जाग्दवस्थायां छद्मस्थज्ञानदर्शनोपयोगयोरक्रमेण वृत्तिप्रसङ्गात् । ततो दर्शनावरणीयकर्मणोऽस्तित्वान्यथानुपपत्तेरन्तरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धकं दर्शनावरणीयम्, बहिरङ्गार्थविषयोपयोगप्रतिबन्धकं ज्ञानावरणमिति प्रतिपत्तव्यम् । आत्मविषयोपयोगस्य दर्शनत्वेऽङ्गीक्रियमाणे आत्मनो विशेषाभावाच्चतुर्णामपि दर्शनानामविशेषः स्यादिति चेन्नैष दोषः, यद्यस्य ज्ञानस्योत्पादकं स्वरूपसंवेदनं तस्य तदर्शन
होता है । परंतु पदार्थ तो उपयोगरूप हो नहीं सकता, क्योंकि, पदार्थको उपयोगरूप माननमें विरोध आता है । पदार्थका उपयोग भी दर्शन नहीं हो सकता है, क्योंकि, वह उपयोग ज्ञानरूप पड़ता है। इसलिये चक्षुदर्शनका अस्तित्व नहीं बनता है।
समाधान-- नहीं, क्योंकि, यदि चक्षुदर्शन नहीं हो तो चक्षुदर्शनावरण कर्म नहीं बन सकता है, क्योंकि, आधार्यके अभावमें आधारकका भी अभाव हो जाता है। इसलिये अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाला चक्षुदर्शन है यह बात स्वीकार कर लेना चाहिये। दूसरे निद्रानिद्रा आदि कर्म ज्ञानके प्रतिबन्धक नहीं हैं, क्योंकि, ज्ञानावरण कर्मके भेदों में इन निद्रानिद्रा आदि कर्मीका पाठ नहीं है। तथा निद्रानिद्रा आदि कर्म अन्तरंग और बहिरंग पदार्थोंको विषय करनेवाले दोनों उपयोगोंके भी प्रतिबन्धक नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने पर भी निद्रानिद्रादिकका ज्ञानावरणके भीतर ही अन्तर्भाव होना चाहिये था। परंतु ऐसा नहीं है, अतः निद्रानिद्रादिक दोनों उपयोगके भी प्रतिबन्धक नहीं हैं। निद्रानिद्रादिक अन्तरंग और बहिरंग पदार्थाको विषय करनेवाले उपयोग सामान्यके भी प्रतिबन्धक नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा मान लेने पर जाग्रत् अवस्थामें छद्मस्थके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगकी युगपत् प्रवृत्तिका प्रसंग आ जायगा । इसलिये दर्शन यदि न हो तो दर्शनावरण कर्मका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है। अतः अन्तरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगका प्रतिबन्धक दर्शनावरण कर्म है और बहिरंग पदार्थको विषय करनेवाले उपयोगका प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म है ऐसा जानना चाहिये।
शंका-आत्माको विषय करनेवाले उपयोगको दर्शन स्वीकार कर लेनेपर आत्मामें कोई विशेषता नहीं होनेसे चारों दर्शनोंमें भी कोई भेद नहीं रह आयगा ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो जिस शानका उत्पन्न करनेवाला
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