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________________ ३६२] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [१, १, ११७. विभङ्गज्ञानाध्वानप्रतिपादनार्थमाह विभंगणाणं सण्णि-मिच्छाइट्ठीणं वा सासणसम्माइट्ठीणं वा ॥ ११७॥ विकलेन्द्रियाणां किमिति तन्न भवतीति चेन्न, तत्र तन्निबन्धनक्षयोपशमाभावात् । सोऽपि तत्र किमिति न सम्भवतीति चेन्न, तद्धेतुभवगुणानामभावात् । विभङ्गज्ञाने भवप्रत्यये सति पर्याप्तापर्याप्तावस्थयोरपि तस्य सत्वं स्यादित्याशङ्कितशिष्याशङ्कापोहनार्थमाह पज्जत्ताणं अत्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि।। ११८ ॥ अथ स्याद्यदि देवनारकाणां विभङ्गज्ञानं भवनिबन्धनं भवेदपर्याप्तकालेऽपि तेन भवितव्यं तद्धेतोर्भवस्य सत्त्वादिति न, 'सामान्यबोधनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते' इति विभंगज्ञानके विशेष प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंविभंगवान संशी मिथ्यादृष्टि जीवोंके तथा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके होता है॥११७॥ शंका-विकलेन्द्रिय जीवोंके वह क्यों नहीं होता है ? समाधान नहीं, क्योंकि, वहां पर विभंगज्ञानका कारणभूत क्षयोपशम नहीं पाया जाता है। शंका-वह क्षयोपशम भी विकलेन्द्रियों में क्यों संभव नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय होता है। परंतु विकलेन्द्रियोंमें ये दोनों प्रकारके कारण नहीं पाये जाते हैं, इसलिये उनके विभंगवान संभव नहीं है। विभंगज्ञानको भवप्रत्यय मान लेने पर पर्याप्त और अपर्याप्त इन दोनों अवस्थाओंमें उसका सद्भाव पाया जाना चाहिये इसप्रकार आशंकाको प्राप्त शिष्यके संदेहके दूर करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं विभंगज्ञान पर्याप्तकोंके ही होता है, अपर्याप्तकोंके नहीं होता है ॥ ११८ ॥ शंका- यदि देव और नारकियोंके विभंगज्ञान भवप्रत्यय होता है तो अपर्याप्तकालमें भी वह हो सकता है, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें भी विभंगज्ञानके कारणरूप भवकी सत्ता पाई जाती है? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'सामान्य विषयका बोध करानेवाले वाक्य विशेषों में रहा १ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञान श्रुताज्ञान विभङ्गज्ञानेषु मिथ्यादृष्टि: सासादनसम्यग्दृष्टिश्चास्ति । स. सि. १. ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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