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________________ २५०] छक्खडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १११. सिल-पुढवि-भेद-धूली-जल-राई-समाणओ हवे कोहो । णारय-तिरिय-णरामर-गईसु उप्पायओ कमसो ॥ १७४ ॥ सेलट्ठि-कट्ठ-बेत्तं णियभेएणगुहरंतओ माणो । णारय-तिरिय-णरामर-गइ-विसयुप्पायओ कमसो' ॥ १७५ ।। वेलुवमूलोरव्भय-सिंगे गोमुत्तएण खोरप्पे । सरिसी माया णारय-तिरिय-णरामरेसु जणइ जिअं ॥ १७६ ।। किमिराय-चक्क-तणु-मल-हरिद्द-राएण सरिसओ लोहो । णारय-तिरिकाव-माणुस-देवेसुप्पायओ कमों ॥ १७७ ॥ क्रोधकषाय चार प्रकारका है। पत्थरकी रेखाके समान, पृथिवीकी रेखाके समान, धूलिरेखाके समान और जलरेखाके समान । ये चारों ही क्रोध क्रमसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगतिमें उत्पन्न करानेवाले होते हैं ॥ १७४ ॥ ___मान चार प्रकारका होता है। पत्थरके समान, हड्डीके समान, काठके समान तथा बेतके समान । ये चार प्रकारके मान भी क्रमसे नरक, तिर्यंच मनुष्य और देवगतिके उत्पादक हैं ॥ १७॥ माया भी चार प्रकारकी है। बांसकी जड़के समान, मेढेके सींगके समान, गोमूत्रके समान तथा खुरपाके समान | यह चार प्रकारकी माया भी क्रमसे जीवको नरक, तिर्यंच. मनुष्य और देवगतिमें ले जाती है ॥१७६॥ लोभकषाय भी चार प्रकारका है। क्रिमिरागके समान, चक्रमलके समान, शरीरके मलके समान और हल्दीके रंगके समान । यह भी क्रमसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, गतिका उत्पादक है ॥ १७७॥ .............................. १ गो. जी. २८४. तत्तच्छक्तियुक्तकोधकषायपरिणतो जीवः तसदत्युत्पत्तिकारणतत्तदायुर्ग यानुपूर्व्यादि. प्रकृतीबंधातीत्यर्थः। अत्र राजिशब्दो रेखार्थवाची न तु पंक्तिवाची। यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीघ्रशीघ्रतरकालैर्विना अनुसन्धानं न घटते तथोत्कृष्टादिशक्तियुक्तकोधपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकालैविना क्षमालक्षणसंधानाहों न स्यात् इत्युपमानोपमेययोः सादृश्यं संभवतीति तात्पर्यार्थः । जी. प्र. टी. णगपुढविबालगोदयराईसरिसो चउविहो कोहो । कसायपाहुड. जलरेणुपुढविपव्वयराईसरिसो चउविहो कोहो । क. ग्रं. १. १९. २ गो. जी. २८५. सेलघणअद्विदारुअलदासमाणो हवदि माणो ॥ कसायपहुड. तिणिसलयाकट्ठियअसे. लत्थंभोवमी माणो । क. . १. १९. ३ गो. जी. २८६. वंसीजण्हुगस रिसी मेटविसाणसरिसी य गोमुत्ती। अवलेहणीसमाणा माया विचउबिहा भणिदा-॥ फसायपहुड. मायावलेहिगोमुत्तिमिंटासिंगधनवंसिमूलसमा। क. ग्रं. १. २०. ४ गो. जी. २८७, किमिरागरत्तसमगो अक्खमलसमो य पंसुलेवसमो। हालिबत्थसमगो · लोभो वि' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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