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________________ छक्खंडागमे जीवाणं - ३४८ ] नुक्तास्तत एवावसेयाः । वेदद्वारेण जीवपदार्थमभिधाय कषायमुखेन जीवसमासस्थाननिरूपणार्थमाहकसायाणुवादेण अत्थि को कसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई अक्साई चेदि ॥ १११ ॥ [१, १, १११. कषायिसामान्येनैकत्वाद्बहूनामप्येकवचनं घटते क्रोधकषायी मानकषायी मायाकषायी लोभकषायी अकषायीति । अथवा नेदमेकवचनं 'एए सोहंति सिही णचंता गिरिवरस्स सिहरम्मि ' इत्येवमादिबहुत्वेऽपि एवंविधरूपोपलम्भादनेकान्तात् । अथ स्यात्क्रोधकषायः मानकषायः मायाकषायः लोभकषायः अकषाय इति वक्तव्यं कषायेभ्यस्तद्वतां भेदात् इति न, जीवेभ्यः पृथक् क्रोधाद्यनुपलम्भात् । तयोर्भेदाभावे कथं भिन्नं तन्निर्देशो घटत इति चेन्न, अनेकान्ते तदविरोधात् । शब्दनयाश्रयणे क्रोधकषाय वेदवाले होते हैं, नपुंसक नहीं होते हैं। इत्यादि अनुक्त अर्थ भी उसी व शब्दसे जान लेना । वेदमार्गणा द्वारा जीव पदार्थको कहकर अब कषाय मार्गणा के द्वारा गुणस्थानोंके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं कषाय मार्गणाके अनुवादले क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकपायी, लोभकषायी और कषायरहित जीव होते हैं ॥ १११ ॥ कषायी- सामान्यकी अपेक्षा एक होनेके कारण बहुतका भी एकवचनके द्वारा कथन बन जाता है । जैसे, क्रोधकपायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकपायी और अकषायी । अथवा, ' कोधकसाई' इत्यादि पद एकवचन नहीं हैं, क्योंकि, 'एए सोहांत सिहीणचंता गिरिवरस्त सिहरम्मि ' ( अर्थात् गिरिवर के शिखरपर नृत्य करते हुए ये मयूर शोभा पा रहे हैं ।) इत्यादि प्रयोगोंमें बहुत्वकी विवक्षा रहने पर भी ' कोधकसाई' की तरह ' सिद्दी' इसप्रकार रूपोंकी उपलब्धि होती है । इसलिये इसप्रकार के प्रयोगों में अनेकान्त समझना चाहिये । शंका- सूत्र में क्रोधकषायी आदिके स्थान पर क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकपाय, लोभकषाय और अकषाय कहना चाहिये, क्योंकि, कषायोंसे कषायवालोंमें भेद पाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जीवोंसे पृथक् क्रोधादि कषायें नहीं पाई जाती है। शंका- यदि कषाय और कषायधानमें भेद नहीं है तो भिन्न रूपसे उनका निर्देश कैसे बन सकता है ? Jain Education International समाधान- नहीं, क्योंकि, अनेकान्तमें भिन्न निर्देशके बन जानेमें भी कोई विरोध नहीं आता है । विशेषार्थ - यद्यपि कषायादि धर्म जीवको छोड़कर स्वतन्त्र नहीं पाये जाते हैं, इस For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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