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________________ १, १, १००. ] संत- परूवणाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [ ३३९ परं सुखमवाप्नुवन्ति ततस्ते रूपप्रवीचाराः । यतः शुक्रमहाशुक्रशतारसहस्रारेषु देवाः देवाङ्गनानां मधुरसङ्गीतमृदुहसितललित कथित भूषणरवश्रवणमात्रादेव परां प्रीतिमास्कन्दन्ति ततस्ते शब्दप्रवीचाराः । आनतप्राणतारणाच्युतकल्पेषु देवाः यतः स्वाङ्गनामनःसङ्कल्पमात्रादेव परं सुखमवाप्नुवन्ति' ततस्ते मनःप्रवीचाराः । प्रवीचारो वेदनाप्रतीकारः । वेदनाभावाच्छेषाः देवाः अप्रवीचाराः अनवरतसुखा इति यावत् । सम्यग्मिथ्यादृष्टिस्वरूपनिरूपणार्थमाह - सम्मामिच्छाइड-डाणे णियमा पज्जत्ता ॥ ९९ ॥ सुगमत्वान्नात्र वक्तव्यमस्ति । शेषदेवेषु गुणस्थानस्वरूपनिरूपणार्थमाह अणुदिस - अणुत्तर विजय वड्जयंत जयंतावराजित सव्वङ्गसिद्धिविमाणवासिय देवा असंजदसम्माइट्ठिी-डाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।। १०० ॥ मात्र से ही परम सुखको प्राप्त होते हैं । इसलिये वे रूपसे प्रवचार करनेवाले हैं। क्योंकि; शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पों में रहनेवाले देव देवांगनाओंके मधुर संगीत, कोमल हास्य, ललित शब्दोच्चार और भूषणोंके शब्द सुनने मात्रसे ही परम प्रीतिको प्राप्त होते हैं, इसलिये वे शब्दसे प्रचार करनेवाले हैं। क्योंकि, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में रहनेवाले देव अपनी स्त्रीका मनमें संकल्प करने मात्रसे ही परम सुखको प्राप्तहोते हैं, इसलिये वे मनसे प्रचार करनेवाले कहे जाते हैं । वेदनाके प्रतीकारको प्रवीचार कहते हैं । उस वेदनाका अभाव होनेसे नव ग्रैवेयकसे लेकर ऊपर के सभी देव प्रवीचाररहित हैं अर्थात् निरन्तर सुखी हैं । अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि देवोंके स्वरूपके निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें देव नियमसे पर्याप्तक होते हैं ॥ ९९ ॥ इस सूत्र का अर्थ सुगम होनेसे यहां पर अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। अब शेष देवों में गुणस्थानों के स्वरूपके निर्णय करने के लिये सूत्र कहते हैं नव अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पांच अनुत्तर विमानोंमें रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं ॥ १०० ॥ Jain Education International १ स. सि. ४. ८. त. रा. वा. ४. ८. वा. ५. २ नैषामन्यान्युत्तराणि विमानानि सन्तीत्यनुत्तर विमानानि । अनु. अनुत्तरेषु सर्वोत्तमेषु विमानविशेषेषु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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