SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, ९२. मानुषीषु निरूपणार्थमाह मणुसिणीसु मिच्छाइटिसासणसम्माइटि-टाणे सिया पजत्तियाओ सिया अपजत्तियाओ ॥ ९२ ।। अत्रापि पूर्ववदपर्याप्तानां पर्याप्तव्यवहारः प्रवर्तयितव्यः । अथवा स्यादित्ययं निपातः कथश्चिदित्यस्मिन्नर्थे वर्तते, तेन स्यात्पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयाच्छरीरनिष्पत्यपेक्षया वा । स्यादपर्याप्ताः शरीरानिष्पत्त्यपेक्षया इति वक्तव्यम् । सुगममन्यत्। तत्रैव शेषगुणविषयारेकापोहनार्थमाह - सम्मामिच्छाइट्टि-असंजदसम्माइटि-संजदासंजदाणे णियमा पज्जत्तियाओ ॥ ९३ ॥ हुण्डावसर्पिण्यां स्त्रीषु सम्यग्दृष्टयः किन्नोत्पद्यन्त इति चेन्न, उत्पद्यन्ते। कुतोऽवसीअन्तर्भाव होता है, क्योंकि, आगममें जो मनुष्योंके चार भेद किये हैं उनमेंसे जिनके पर्याप्त नामकर्मका उदय विद्यमान है उन्हें पर्याप्त कहा है। इस पर शंकाकारका कहना है कि जिनके पर्याप्तियां पूर्ण नहीं हुई हैं ऐसे अपर्याप्तकोंका पर्याप्तकोंमें अन्तर्भाव कैसे किया जा सकता है। इसी शंकाको भ्यानमें रखकर ऊपर समाधान किया गया है। अब मनुष्य स्त्रियोंमें गुणस्थानोंके निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं मनुष्य-स्त्रियां मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त भी होती है और अपर्याप्त भी होती हैं ॥ ९ ॥ यहां पर भी पर्याप्त मनुष्यों के समान नित्यपर्याप्तकोंमें पर्याप्तपनेका व्यवहार कर लेना चाहिये। अथवा, 'स्यात् ' यह निपात कथंचित् अर्थमें रहता है। इसके अनुसार कथंचित् पर्याप्त होते हैं, इसका यह तात्पर्य है कि पर्याप्त नामकर्मके उदयकी अपेक्षा अथवा शरीरपर्याप्तिकी पूर्णताकी अपेक्षा पर्याप्त होते हैं। और कथंचित् अपर्याप्त होते हैं, इसका यह तात्पर्य है कि शरीर पर्याप्तिकी अपूर्णताकी अपेक्षा अपर्याप्त होते हैं। शेष कथन सुगम है। __ अब मनुष्य-स्त्रियों में ही शेष गुणस्थानाविषयक शंकाके दूर करनेके लिये सूत्र कहते हैं मनुष्य-स्त्रियां सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियमसे पर्याप्तक होती हैं ॥ ९३ ॥ शंका-हुण्डावसार्पणी कालसंबन्धी स्त्रियों में सम्यग्दृष्टि जीव क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उनमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? १ अत्र संजद ' इति पाठशेषः प्रतिभाति. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy