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________________ १, १, ७३. ] संत-पस्त्रगाणुयोगद्दारे जोगमग्गणापरूवणं [ ३१३ पंच पजत्तीओ पंच अपज्जत्तीओ ॥ ७२ ॥ पर्याप्तीनामपर्याप्तीनां च लक्षणमभाणीति नेदानी भण्यते । षण्णां पर्याप्तीनामन्तः पश्चापि सन्तीति पृथक् पर्याप्तिपञ्चकोपदेशोऽनर्थक इति चेन्न, क्वचिजीवविशेषे पडेव पर्याप्तयो भवन्ति, क्वचित्पश्चैव भवन्तीति प्रतिपादनफलत्वात् । काः पञ्च पर्याप्तय इति चेन्मनोवर्जाः शेषाः पञ्च ।। ताः केषां भवन्तीति संशयानस्य शिष्यसारेकानिराकरणार्थमुत्तरसूत्रं वक्ष्यतिबीइंदिय-प्पहुडि जाव असण्णिपंचिदिया त्ति ॥ ७३ ॥ विकलेन्द्रियेष्वस्ति मनः तत्कार्यस्य विज्ञानस्य तत्र सत्वान्मनुष्येष्वेवेति न प्रत्यवस्थातुं युक्तं तत्रतनस्य विज्ञानस्य तत्कार्यत्वासिद्धेः । मनुष्येषु विज्ञानस्य तत्कार्यत्वं दृश्यत पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं ॥७२॥ पर्याप्तियोंका और अपर्यप्तियोंका लक्षण पहले कह आये हैं, इसलिये अब फिरसे नहीं कहते हैं। शंका-पांच पर्याप्तियां छह पर्याप्तियोंके भीतर आ ही जाती हैं, इसलिये अलगरूपसे पांच पर्याप्तियोंका कथन करना निष्फल है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, किन्हीं जीव-विशेषों में छहों पर्याप्तियां पाई जाती हैं, और किन्हीं जावों में पांच ही पाप्तियां पाई जाती हैं। इस बातका प्रतिपादन करना इस सूत्रका फल है। शंका-वे पांच पर्याप्तियां कौनसी हैं ? समाधान-मनःपर्याप्तिको छोड़कर शेष पांच पर्याप्तियां यहां पर ली गई हैं। वे पांच पर्याप्तियां किनके होती हैं, इसप्रकार संशयापन्न शिष्यको शंका दूर करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं वे पांच पर्याप्तियां द्वीन्द्रिय जीवोंसे लेकर असंज्ञी-पंचेन्द्रियपर्यन्त होती हैं ॥ ७३ ॥ शंका-विकलेन्द्रिय जीवों में भी मन है, क्योंकि, मनका कार्य जो विज्ञान मनुष्योंमें है वही विकलेन्द्रिय जीवों में भी पाया जाता है ? समाधान-यह बात निश्चय करने योग्य नहीं है, क्योंकि, विकलेन्द्रियों में रहनेवाला विज्ञान मनका कार्य है, यह बात असिद्ध है। शंका-मनुष्योंमें जो विशेष ज्ञान होता है वह मनका कार्य है, यह बात तो देखी जाती है? . समाधान- मनुष्योंका विशेष विज्ञान यदि मनका कार्य है तो रहा आवे, क्योंकि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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