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________________ ३०८] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, ६५. योगत्रयस्य स्वामिप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाह - मणजोगो वचिजोगो कायजोगो साण्णमिच्छाइद्वि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ॥६५॥ चतुर्णां मनसां सामान्यं मनः, तज्जनितवीर्येण परिस्पन्दलक्षणेन योगो मनोयोगः । चतुर्णां वचसां सामान्यं वचः, तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगो वाग्योगः । सप्तानां कायानां सामान्यं कायः, तेन जनितेन वीर्येण जीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणेन योगः काययोगः । एते त्रयोऽपि योगाः क्षयोपशमापेक्षया च्यात्मकैकरूपमापन्नाः संज्ञिमिथ्यादृष्टेरारभ्य आसयोगकेवलिन इति क्रमे। सम्भवापेक्षया वा स्वामित्वमुक्तम् । काययोग एकेन्द्रियेष्यप्यस्तीति चेन्न, वाङ्मनोभ्यामविनाभाविनः काययोगस्य विवक्षितत्वात् । तथा वचसोऽप्यभिधातव्यम् । अब तीन योगोंके स्वामीके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं मनोयोग, वचनयोग और काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं ॥६५॥ सत्यादि चार प्रकारके मनमें जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य मन कहते हैं। उस मनसे उत्पन्न हुए परिस्पन्द-लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे मनोयोग कहते हैं। चार प्रकारके वचनोंमें जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य वचन कहते हैं । उस वचनसे उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश-परिस्पन्द-लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते हैं। सात प्रकारके कार्योंमें जो अन्वयरूपसे रहता है उसे सामान्य काय कहते हैं। उस कायसे उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश-परिस्पन्द-लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे काययोग कहते हैं। ये योग तीन होते हुए भी क्षयोपशमकी अपेक्षा व्यात्मक एकरूपताको प्राप्त होकर संशी मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक होते हैं। यहां पर इस क्रमसे संभव होनेकी अपेक्षा स्वामित्वका प्रतिपादन किया। शंका-काययोग एकेन्द्रिय जीवोंके भी होता है, फिर यहां उसका संशी पंचेन्द्रियसे कथन क्यों किया ? समाधान--नहीं, क्योंकि, यहां पर वचनयोग और मनोयोगसे अविनाभाव रखनेवाले काययोगकी विवक्षा है । इसीप्रकार वचनयोगका भी कथन करना चाहिये। अर्थात्, यद्यपि वचनयोग द्वीन्द्रिय जीवोंसे होता है, फिर भी यहां पर मनोयोगका अविनाभावी वचनयोग विवक्षित है, इसलिये उसका भी संज्ञी पंचेन्द्रियसे कथन किया। १ योगानुवादेन त्रिषु योगेषु त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति । स. सि. १.८. मनिज्ञमच उमणवयणे सण्णिपहदि दुजाव खीणो त्ति । सेसाणं जोगि ति य अणुभयवयणं तु वियलादो। गो. ६७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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