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३००] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ६०. द्रव्यस्य गतिरेकविग्रहा गतिः तथा संसारिणामेकविग्रहा गतिः पाणिमुक्ता द्वैसमयिकी । यथा लागलं द्विवक्र तथा द्विविग्रहा गतिर्लाङ्गलिका त्रैसमयिकी । यथा गोमूत्रिका बहुवक्रा तथा त्रिविग्रहा गतिौमूत्रिका चातुःसमयिकी । तत्र कामणकाययोगः स्यादिति । स्वस्थितप्रदेशादारभ्यो धस्तिर्यगाकाशप्रदेशानां क्रमसन्निविष्टानां पङ्किः श्रेणिरित्युच्यते। तयैव जीवानां गमनं नोच्छेणिरूपेण । ततस्त्रिविग्रहा गतिन विरुद्धा जीवस्येति ।
घातनं घातः स्थित्यनुभवयोर्विनाश इति यावत् । कथमनुक्तमनधिकृतं चावगम्यत इति चेन्न, प्रकरणवशात्तदवगतेः । उपरि घातः उद्धातः, समीचीन उद्घातः समुद्रातः ।
कहते हैं । इस गतिमें एक समय लगता है। जैसे हाथसे तिरछे फेंके गये द्रव्यकी एक मोड़ेवाली गति होती है, उसीप्रकार संसारी जीवोंके एक मोड़ेवाली गतिको पाणिमुक्ता गति कहते हैं। यह गति दो समयवाली होती है। जैसे हल में दो मोड़े होते हैं, उसीप्रकार दो मोड़ेवाली गति को लांगलिका गति कहते हैं। यह गति तीन समयवाली होती है। जैसे गायका चलते समय मूत्रका करना अनेक मोड़ोंवाला होता है, उसीप्रकार तीन मोड़ेवाली गतिको गोमूत्रिका गति कहते हैं। यह गति चार समयवाली होती है। इयुगतिको छोड़कर शेष तीनों विग्रहगतियों में कार्मणकाययोग होता है।
जो प्रदेश जहां स्थित हैं वहांसे लेकर ऊपर, नीचे और तिरछे क्रमसे विद्यमान आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणीके द्वारा ही जीवोंका गमन होता है, श्रेणीको उलंघन करके नहीं होता है। इसलिये विग्रहगतिवाले जविके तीन मोड़ेवाली गति विरोधको प्राप्त नहीं होती है। अर्थात् ऐसा कोई स्थान ही नहीं है जहां पर पहुंचने के लिये चार मोड़े लग सकें।
___घातनेरूप धर्मको धात कहते हैं, जिसका प्रकृतमें अर्थ कर्मोकी स्थिति और अनु. भागका विनाश होता है।
शंका-कर्मोकी स्थिति और अनुभागके घातका अभी तक कथन नहीं किया है, अथवा, उसका अधिकार भी नहीं है, इसलिये यहां पर कर्मों की स्थिति और अनुभागका घात विवक्षित है, यह कैसे जाना जाय?
समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रकरणके वशसे यह जाना जाता है कि केवलिसमुद्धातमें कर्मोंकी स्थिति और अनुभागका घात विवाक्षित है।
उत्तरोत्तर होनेवाले घातको उद्घात कहते हैं, और समीचीन उद्घातको समुद्धात
कहते हैं।
१त. रा. वा. २. २८. वा. ४.
२ लोकमध्यादारभ्य स. सि. २.२६ । त. रा. वा. २. २६ । अट्टपएसो रुयगो तिरियं लोयस्स मझयारम्मि । एस पभवो दिसाणं एसेव भवे अणुदिसाणं । आचा. नि. ४२.
३ मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स । णिग्गमणं देहादो होदि समुम्वादणामं तु । गो. जी. ६६८.
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