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________________ १, १, ३३.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं [३४५ मक्कडय-भमर-महुवर-मसय-पयंगा य सलह-गोमच्छी। मच्छी सदस-कीडा णेया चउरिंदिया जीवा ॥ १३८ ॥ कानि तानि चत्वारीन्द्रियाणीति चेत्स्पर्शनरसनघ्राणचक्षूषि । स्पर्शनरसनघ्राणानि उक्तलक्षणानि । चक्षुषः स्वरूपमुच्यते । तद्यथा, करणसाधनं चक्षुः। कुतः ? चक्षुषः पारतन्त्र्यात् । इन्द्रियाणां हि लोके पारतन्त्र्यविवक्षा दृश्यते आत्मनः स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् । यथानेनाक्ष्णा सुष्टु पश्यामि, अनेन कर्णेन सुष्टु शृणोमीति । ततो वीर्यान्तरायचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भाच्चक्षुः । अनेकार्थत्वादर्शनार्थविवक्षायां चष्टेऽर्थान् पश्यत्यनेनेति चक्षुः । चक्षुषः कर्तृसाधनं च भवति स्वातन्त्र्यविवक्षायाम् । इन्द्रियाणां हि लोके स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते, यथेदं मेक्षि सुष्टु पश्यति, अयं मे कर्णः सुष्ठ शृणोतीति । ततः पूर्वोक्तहेतुसन्निधाने सति चष्ट इति चक्षुः । कोऽस्य मकड़ी, भौरा, मधु-मक्खी, मच्छर, पतंग, शलभ, गोमक्खी, मक्खी, और दंशसे दशनेवाले कीड़ोंको चतुरिन्द्रिय जीव जानना चाहिये ॥ १३८॥ शंका-वे चार इन्द्रियां कौन कौन हैं ? समाधान-स्पर्शन, रसना, घ्राण, और चक्षु ये चार इन्द्रियां हैं। इसमेंसे स्पर्शन, रसना, और घ्राणके लक्षण कह आये । अब चक्षु-इन्द्रियका स्वरूप कहते हैं । वह इसप्रकार है। चक्षु-इन्द्रिय करणसाधन है, क्योंकि, उसकी पारतन्त्र्यविवक्षा है । जिस समय आत्माकी स्वातन्यविवक्षा होती है, उस समय लोकमें इन्द्रियोंकी पारतन्त्र्यविवक्षा देखी जाती है। जैसे, इस चक्षुसे अच्छी तरह देखता हूं, इस कानसे अच्छी तरह सुनता हूं। इसलिये वीर्यान्तराय और चक्षु इन्द्रियावरणके क्षयोपशम और आंगोपांग नामकर्मके उदयके लाभसे जिसके द्वारा पदार्थ देखे जाते हैं उसे चक्षु-इन्द्रिय कहते हैं। यद्यपि 'चक्षिङ्' धातु अनेक अर्थों में आती है, फिर भी यहां पर दर्शनरूप अर्थकी विवक्षा होनेसे 'जिसके द्वारा पदार्थोंको देखता है वह चक्षु है' ऐला अर्थ लेना चाहिये। तथा स्वातन्त्र्यविवक्षामें चक्षु इन्द्रियके कर्तृसाधन भी होता है, क्योंकि, इन्द्रियोंकी लोकमें स्वातन्त्र्याववक्षा भी देखी जाती है। जैसे, मेरी यह आंख अच्छी तरह देखती है, यह मेरा कान अच्छी तरह सुनता है। इसलिये पहले कहे गये हेतुओंके मिलने पर जो देखती है उसे चक्षु-इन्द्रिय कहते हैं। शंका-इस इन्द्रियका विषय क्या है ? अच्छिरोडा, अच्छिवेहा, सारंगा, नेउरा, दोला, भमरा, भरिली, जरुला, तोहा, विछ्या, पचविच्च्या, छाणविच्या जलविच्छया, पियंगाला, कणगा, गोमयकीडा, जे यावन्ने तहपगारा । प्रज्ञा. १. ४६. १ अधिया पोतिया चेव मच्छिया मसगा तहा । भमरे कीडपयंगे य टंकुणे उक्कुडी तहा | कुक्कुडे भिगिरीडी य नंदावते य विच्छए। टोले भिंगारी य वियडी अच्छिवेहए। अच्छिले माहए अच्छिरोडए विचित्ते चित्तपत्तए। उहिंजलिया जलकारी य नीया तंतबयाइया । इय चउरिदिया एएऽणेगहा एवमायओ। उत्त. ३६, १४७.१५०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org|
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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