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________________ संत - परूवणाणुयोगद्दारे इंदियमग्गणापरूवणं [ २४१ इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः । के ते ? शंखशुक्तिकृम्यादयः । उक्तं चकुक्खिकिमि - सिप्पि-संखा गंडोलारिट्ठ- अक्ख-खुल्ला य । तह य वराडय जीवा णेया बीइंदिया एदे ॥ १३६ ॥ के द्वे इन्द्रिय इति चेत्स्पर्शनरसने । स्पर्शनमुक्तलक्षणम् । भेदविवक्षायां वीर्यान्तरायरसनेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भाद्रस्यत्यनेनेति रसनं करण १, १, ३३. ] जिनके दो इन्द्रियां होती हैं उन्हें द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं । शंका- वे द्वीन्द्रिय जीव कौन कौन हैं ? समाधान - शंख, शुक्ति और कृमि आदिक द्वीन्द्रिय जीव हैं । कहा भी है कुक्षि-कृमि अर्थात् पेट के कीड़े, सीप, शंख, गण्डोला अर्थात् उदरमें उत्पन्न होनेवाली बड़ी काम, अरिष्ट नामक एक जीवविशेष, अक्ष अर्थात् चन्दनक नामका जलचर जीवविशेष, क्षुल्लक अर्थात् छोटा शंख और कौड़ी आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं ॥ १३६ ॥ शंका - वे दो इन्द्रियां कौनसी हैं ? समाधान - स्पर्शन और रसना । उनमेंसे स्पर्शनका स्वरूप कह आये हैं । अब रसना-इन्द्रियका स्वरूप कहते हैं भेद-विवक्षाकी प्रधानता अर्थात् करणकारककी विवक्षा होने पर, वीर्यान्तराय और रसनेन्द्रियावरणकर्मके क्षयोपशमसे तथा आंगोपांग नामकर्मके उदयके अवलम्बनसे जिसके द्वारा स्वादका ग्रहण होता है उसे रसना - इन्द्रिय कहते हैं । तथा इन्द्रियों की स्वातन्त्र्य-विवक्षा अर्थात् कर्तृ-कारककी विवक्षा में पूर्वोक्त साधनों के मिलने पर जो आस्वाद ग्रहण करती है उसे रसना-इन्द्रिय कहते हैं । १ उदरान्तर्वर्तिनो हर्षा ( अशों ) मूलमपानकंडूकराः स्त्रीयोन्यन्तर्गता वा जीवाः कुक्षिक्रमयः । गण्डोलका उदरान्तर्बृहत्क्रमयः । जलचरजीवविशेषाः चन्दनकाः, ते तु समयभाषयाऽक्षत्वेन प्रतीताः । वराटकः कपर्दकः, कौंडीति भाषायाम् । (ग्रन्थान्तरेषु निम्नांकितनामानो जीवा अपि द्वीन्द्रियत्वेन प्रसिद्धाः ) संख - कवड्डय - गंडोल-जलोय - चंदणग-अलस. लहगाई । मेहर-किमि-पूयरगा बेइंदिय माइवाहाई । जलोय - जलौकसः । अलसा भूनागाः, येऽश्लेषास्थे भानौ जलदवृष्टौ सत्यां समुत्पद्यन्ते । लहको जीवविशेषो विषयप्रसिद्ध: ( उषितान्नोत्पन्नजीवः, देशीशब्दोऽयं ) मेहरक: काष्ठकीटविशेषः । पूयरगा- पूतरा जलान्तर्वर्तिनो रक्तवर्णाः कृष्णमुखाः जीवाः । माइवाही - मातृवाहिका गुर्जरदेशप्रसिद्धा चुडेलीति आदिग्रहणादीलिकादयोऽनुक्ता अपि द्वीन्द्रियाः ग्राह्याः । जी. वि. प्र. पू. १०. किमिणो सोमंगला चेव अलसा मारवाया । वासीमुहा य सिपिया संख संखणगा तहा || घल्लोयाशुलया चैव तहेव य वराडगा । जलूगा चेव चन्दणा य तहेत्र य ॥ उत्त. २६, १२९ - १३०. से किं तं इंदिया ? इंदिया अणेगविहा पन्नता । तं जहा, पुलाकिमिया, कुच्छिकिमिया, गंड्यलगा, गोलोमा, णउरा, सोमंगलगा, वसीमुद्दा, सूइमुहा गोजलोया, जलोया, जालाउया, संखा, संखणगा, खुल्ला, खुल्ला, गुलया, खधा, वराडा, सोत्तिया, मुत्तिया, कलुयावासा, एगओवत्ता, दुहओवत्ता, नंदियावत्ता, संबुक्का, माइबाहा, सिप्पिसपुडा, चंदा, समुद्दलिक्खा, जे यावन्ने तहप्पगारा । प्रज्ञा. १. ४४, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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