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________________ २२०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, २७. सरिसत्त-णियमों णत्थि, तदो णेदं घडदि ति चे स दोसो ण दोसो, हद-सेस-हिदिअणुभागाणं एय-पमाण-णियम-दंसणादो । ण च थोव-हिदि-अणुभाग-विरोहि-परिणामो तदो अब्भहिय-हिदि-अणुभागाणमविरोहित्तमल्लियई अण्णत्थ तह अदंसणादो । ण च अणियहिम्हि पदेस-बंधो एय-समयम्हि वहमाण-सव्व-जीवाणं सरिसो तस्स जोग-कारणत्तादो । ण च तेसिं सव्वेति जोगस्स सरिसत्तणे नियमो अस्थि लोगपूरणम्हि द्विय केवलीणं व तहा पडिवायय-सुत्ताभावादो। तदो सरिस-परिमाणत्तादो सब्बेसिमणियट्टीणं समाण-समय-संहियाणं द्विदि-अणुभागघादत्त-बंधोसरण-गुणसेढि समाधान-यह भी कोई दोष नहीं है, क्योंकि, प्रथमस्थितिके अवशिष्ट रहे हुए खण्डका और उसके अनुभागखण्डका अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले प्रथम समयमें ही घात कर देते हैं, अतएव उनके द्वितीयादि समयों में स्थितिकाण्डकोंका और अनुभागकाण्डकोंका एकप्रमाण नियम देखा जाता है। दूसरे, अल्प-स्थिति और अल्प-अनुभागरूप विरोधी परिणाम उससे अधिक स्थिति और अधिक अनुभागोंके अविरोधीपनेको प्राप्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, प्रथमस्थितिके अतिरिक्त द्वितीयादि स्थितियों में वैसा विरोध देखनेमें नहीं आता है। परंतु इस कथनसे अनिवृत्तिकरणके एक समयमें स्थित संपूर्ण जीवोंके प्रदेशबन्ध सदृश होता है ऐसा नहीं समझ लेना चाहिये, क्योंकि, प्रदेशबन्ध योगके निमित्तसे होता है। परंतु अनिवृत्तिकरणके एक समयवर्ती संपूर्ण जीवोंके योगकी सदृशताका कोई नियम नहीं पाया जाता है। जिसप्रकार लोकपूरण समुद्धातमें स्थित केवलियोंके योगकी समानताका प्रतिपादक परमागम है, उसप्रकार अनिवृत्तिकरणमें योगकी समानताका प्रतिपादक परमागमका अभाव है। इसलिये समान (एक) समयमें स्थित संपूर्ण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले जीवोंके सदृश परिणाम होनेके कारण स्थितिकाण्डकघात, अनुभागकाण्डकघात, बन्धापसरण, गुणश्रेणीनिर्जरा और १तिकालगोयराणं सव्वेसिमणियट्टिकरणाणं समाणसमए वट्टमाणार्ण सरिसपरिणामत्तादी पटमद्विदिखंडयं पि तेसिं सरिसमेवेत्ति णावहारेयव्वं किंतु तत्थ जहण्णुकस्स वियप्पसंभवादो । जयव. अ. प्र. १०७४. बादरपटमे पदम ठिदिखंडं विसरिसं तु त्रिदियादि । ठिदिखंडयं समाणं सबस्स समाणकालम्हि । पल्लस्स संखभागं अवरं तु वरं तु संखभागहियं । घादादिमहिदिखंडो सेसा सव्वस्स सरिसा हु। ल.क्ष. ४१२, ४ १३. २ . उपसरल्लिअः ' हैम ८, ४, १३९. ३ ल. क्ष. ६२६. लोगे पुण्णे एका वग्गणा जोगस्स ति समजोगो ति णायबो। लोगपूरणसमुग्घादे घटमाणस्सेदस्स केवलिणो लोगमेत्तासेसजीवपदेसेतु जोगाविभागपलिच्छेदा वडिहाणीहिं विणा सरिसा चेय होण परिणमंति तेण सब्वे जीवपदेसा अण्णोणं सरिसधणियसरूवेण परिणदा संता एया वग्गणा जादा तदो समजोगो सि एसो तदवस्थाए णायव्यो। जोगसत्तीए सवजीवपदेसेसु सरिसभावं मोत्तूण विसरिसभावाणुवलंभादो ति वृत्तं होइ । जयध. अ. पृ. १२३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.or www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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