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________________ २१८ ] छपखंडागमे जीवहाणं [१, १, २७. णाणाविह-सत्ति-संभवाविरोहादो । केसिं चि जीवाणं पटेसु असु कसाएसु पच्छा सोलसकम्म-खवण-सत्ती समुप्पज्जदि त्ति तेण पच्छा सोलस-कम्म-क्खयो होदि , कारणकम्माणुसारी कज्ज-कमो' त्ति णायादो । केसि चि जीवाणं पुव्वं सोलस-कम्म-खवणसत्ती समुप्पज्जदि, पच्छा अट्ठ-कसाय-कावरण-सत्ती उप्पज्जदि ति णहेसु सोलस-कम्मेसु पच्छा अंतोमुहुत्ते अदिकते अह कपाया णस्संति । तदो ण दोण्हं उवएसाणं विरोहो त्ति के वि आइरिया भणंति, तण्ण घडदे । किं कारणं ? जेण अणियट्टिणो णाम जे के वि एग-समए वट्टमाणा ते सव्वे वि अदीदाणागद-वट्टमाण-कालेसु समाण-परिणामा, तदो चेय ते समाण-गुणसेढि-णिजरा वि । अह भिण्ण-परिणामा वुच्चंति तो कवहि ण ते अणियहिणो, मिण्ण-परिणामत्तादो अपुव्यकरणा इव । ण च कम्म-बंधाणं शंका- नाना जीवोंके नाना-प्रकारकी शक्तियां संभव हैं, इसमें कोई विरोध नहीं आता है । इसलिये कितने ही जीवोंके आठ कषायोंके नष्ट हो जानेपर तदनन्तर सोलह कौके क्षय करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है। अतः उनके आठ कषायोंके क्षय हो जानेके पश्चात्, सोलह कर्मोका क्षय होता है । क्योंकि, 'जिस क्रमसे कारण मिलते हैं उसी क्रमसे कार्य होता है' ऐसा न्याय है। तथा कितने ही जीवोंके पहले सोलह कौके क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है, और तदनन्तर आठ कषायोंके क्षयकी शक्ति उत्पन्न होती है । इसलिये पहले सोलह कर्म-प्रकृतियां नष्ट होती हैं, और इसके पीछे एक अन्तर्मुहर्तके व्यतीत होने पर आठ कषायें नष्ट होती हैं । इसलिये पूर्वोक्त दोनों उपदेशोंमें कोई विरोध नहीं आता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं ? समाधान-परंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवाले जितने भी जीव हैं, वे सब अतीत, वर्तमान और भविष्य काल सम्बन्धी किसी एक समयमें विद्यमान होते हुए भी समान-परिणामवाले ही होते हैं, और इसीलिये उन जीवोंकी गुणश्रेणी-निर्जरा भी समानरूपसे ही पाई जाती है। और यदि एकसमयस्थित अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवालोंको विसदृश परिणामवाला कहा जाता है, तो जिसप्रकार एक समयस्थित अपूर्वकरण गुणस्थानवालोंके परिणाम विसदृश होते हैं, अतएव उन्हें अनिवृत्ति यह संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है, उसीप्रकार इन परिणामोंको भी अनिवृत्तिकरण यह संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकेगी। और असंख्यातगुणी-श्रेणीके द्वारा कर्मस्कन्धोंके क्षपणके कारण पुवं खवित्तु अट्ठा य । पच्छा सोलादीणं खवणं इदि केहिं णिद्दिष्टुं । गो. क, ३९१. प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानाष्टकमन्तयेद् गुणे नत्रमे । तस्मिन्नर्धक्षपिते क्षपयेदिति षोडश प्रकृतीः ॥ xxx अर्धदग्धेन्धनो वहिदेहेत्प्राप्येन्धनान्तरम् । क्षपकोऽपि तथात्रान्तः क्षपयेत्प्रकृतीः पराः॥ कषायाष्टकशेषं च क्षपयित्वाऽन्तयेत् कमात् । क्लीवस्त्रीवेदहास्यादिषट्पूरुषवेदकान् ।। एष सूत्रादेशः । अन्ये पुनराहुः, षोडश कर्माण्येव पूर्व क्षपयितुमारभते, केवलमपान्तरालेऽष्टौ कषायान् क्षपयति, पश्चात् षोडश कर्माणीति कर्मग्रन्थवृत्तौ ।। लो. प्र., प्र. भा. पृ. ६८, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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