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________________ १, १, २१.] संत-पख्वणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं (१९१ केवलं केवलज्ञानम् । कथं नामैकदेशात्सकलनाम्ना प्रतिपद्यमानस्यार्थस्यावगम इति चेन्न, बलदेवशब्दवाच्यस्यार्थस्य तदेकदेशदेवशब्दादपि प्रतीयमानस्योपलम्भात् । न च दृष्टेऽनुपपन्नता अव्यवस्थापत्तेः । केवलमसहायमिन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षम्, तदेषामस्तीति केवलिनः । मनोवाकायप्रवृत्तिर्योगः, योगेन सह वर्तन्त इति सयोगाः । सयोगाश्च ते केवलिनश्च सयोगकेवलिनः । सयोगग्रहणमधस्तनसकलगुणानां सयोगत्वप्रतिपादकमन्तदीपकत्वात् । क्षपिताशेषघातिकर्मत्वान्निःशक्तीकृतवेदनीयत्वान्नष्टाष्टकर्मावयवपष्टिकर्मत्वाद्वा क्षायिकगुणः । उक्तं च केवलणाण-दिवायर-किरण-कलाव-प्पणासि-अण्णाणो' । णव-केवल-लडुग्गम-सुजणिय-परमप्प-ववएसो ॥ १२४ ॥ केवल पदसे यहां पर केवलज्ञानका ग्रहण किया है। शंका-नामके एकदेशके कथन करनेसे संपूर्ण नामके द्वारा कहे जानेवाले अर्थका बोध कैसे संभव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, बलदेव शब्दके वाच्यभूत अर्थका, उसके एकदेशरूप 'देव' शब्दसे भी बोध होना पाया जाता है । और इसतरह प्रतीति-सिद्ध बातमें, 'यह नहीं बन सकता है' इसप्रकार कहना निष्फल है, अन्यथा सब जगह अव्यवस्था हो जायगी। जिसमें इन्द्रिय, आलोक और मनकी अपेक्षा नहीं होती है उसे केवल अथवा असहाय कहते हैं। वह केवल अथवा असहाय ज्ञान जिनके होता है, उन्हें केवली कहते हैं। मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको योग कहते हैं। जो योगके साथ रहते हैं उन्हें सयोग कहते हैं । इसतरह जो सयोग होते हुए केवली हैं उन्हें सयोगकेवली कहते हैं । इस सूत्रमें जो सयोग पदका ग्रहण किया है वह अन्तदीपक होनेसे नीचेके संपूर्ण गुणस्थानों के सयोगपनेका प्रतिपादक है। चारों घातिया कौके क्षय कर देनेसे, वेदनीय कर्मके निःशक्त कर देनेसे, अथवा आठों ही कमौके अवयवरूप साठ उत्तर-कर्म-प्रकृतियोंके नष्ट कर देनेसे इस गुणस्थानमें क्षायिक भाव होता है । विशेषार्थ-यद्यपि अरहंत परमेष्ठीके चारों घातिया कर्मोकी सेतालीस, नामकर्मकी तेरह और आयुकर्मकी तीन, इसतरह त्रेसठ प्रकृतियों का अभाव होता है। फिर भी यहां साठ कर्मप्रकृतियोंका अभाव बतलाया है। इसका ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये कि आयुकी तीन प्रकृतियोंके नाशके लिये प्रयत्न नहीं करना पडता है। मुक्तिको प्राप्त होनेवाले जीवके एक मनुष्यायुको छोड़कर अन्य आयुकी सत्ता ही नहीं पाई जाती है, इसलिये यहां पर आयुकर्मकी तीन प्रकृतियोंकी अविवक्षा करके साठ प्रकृतियोंका नाश बतलाया गया है। कहा भी है जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंके समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकार सर्वथा नष्ट १ अनेन सयोगभट्टारकस्य भव्यलोकोपकारकत्वलक्षणपरार्थसंपत्प्रणीता । गो. जी., जी. प्र., टी. ६३. २ [अनेन पदेन ] भगवदह परमेष्ठिनोऽनन्तज्ञानादिलक्षणस्वार्थसंपत् प्रदर्शिता। गो.जी.,जी.प्र., टी.६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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