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________________ छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, १, १५. प्रमत्तसंयताः। यदि प्रमत्ताः न संयताः स्वरूपासंवेदनात् । अथ संयताः न प्रमत्ताः संयमस्य प्रमादपरिहाररूपत्वादिति नैष दोषः, संयमो नाम हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिः गुप्तिसमित्यनुरक्षितः, नासौ प्रमादेन विनाश्यते तत्र तस्मान्मलोत्पत्तेः । संयमस्य मलोत्पादक एवात्र प्रमादो विवक्षितो न तद्विनाशक इति कुतोऽवसीयत इति चेत् संयमाविनाशान्यथानुपपत्तेः। न हि मन्दतमः प्रमादः क्षणक्षयी संयमविनाशकोऽसति विबन्धर्यनुपलब्धेः । प्रमत्तवचनमन्तदीपकत्वाच्छेषातीतसर्वगुणेषु प्रमादास्तित्वं सूचयति । पञ्चसु गुणेषु कं गुणमाश्रित्यायं प्रमत्तसंयत गुण उत्पन्नश्चेत्संयमापेक्षया क्षायोपशमिकः । कथम् ? प्रत्याख्यानावरणसर्वघातिस्पर्धकोदयक्षयात्तेषामेव सतामुदयाभावलक्षणोपशमात् शंका- यदि छटवें गुणस्थानवी जीव प्रमत्त हैं तो संयत नहीं हो सकते हैं, क्योंक, प्रमत्त जविोंको अपने स्वरूपका संवेदन नहीं हो सकता है। यदि वे संयत हैं तो प्रमत्त नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, संयमभाव प्रमादके परिहारस्वरूप होता है। समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह इन पांच पापोंसे विरतिभावको संयम कहते हैं जो कि तीन गुप्ति और पांच सामतियोंसे अनुरक्षित है । वह संयम वास्तवमें प्रमादसे नष्ट नहीं किया जा सकता है, क्योंक, संयममें प्रमादसे केवल मलकी ही उत्पत्ति होती है। शंका- छटवें गुणस्थानमें संयममें मल उत्पन्न करनेवाला ही प्रमाद विवक्षित है, संयमका नाश करनेवाला प्रमाद विवक्षित नहीं है, यह बात कैसे निश्चय की जाय ? समाधान-छटवें गुणस्थानमें प्रमादके रहते हुए संयमका सद्भाव अन्यथा बन नहीं सकता है, इसलिये निश्चय होता है कि यहां पर मलको उत्पन्न करनेवाला प्रमाद ही अभीष्ट है। दूसरे छटवें गुणस्थानमें होनेवाला स्वल्पकालवर्ती मन्दतम प्रमाद संयमका नाश भी नहीं कर सकता है, क्योंकि, सकलसंयमका उत्कटरूपसे प्रतिबन्ध करनेवाले प्रत्याख्यानावरणके अभावमें संयमका नाश नहीं पाया जाता। यहां पर प्रमत्त शब्द अन्तदीपक है, इसलिये वह छटवें गुणस्थानसे पहलेके संपूर्ण गुणस्थानोंमें प्रमादके अस्तित्वको सूचित करता है। शंका-पांच भावों से किस भावका आश्रय लेकर यह प्रयत्तसंयत गुणस्थान उत्पन्न होता है ? समाधान -संयमकी अपेक्षा यह गुणस्थान क्षायोपशमिक है । शंका-प्रमत्तसंयत गुणस्थान क्षायोपशामक किस प्रकार है ? समाधान- क्योंकि, वर्तमानमें प्रत्याख्यानावरणके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षय होनेसे और आगामी कालमें उदयमें आनेवाले सत्तामें स्थित उन्हींके उदयमें न आनेरूप उपशमसे तथा संज्वलन कषायके उदयसे प्रत्याख्यान (संयम) उत्पन्न होता है, इसलिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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