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________________ १६६] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, ११. सासादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिः । विपरीताभिनिवेशदूषितस्य तस्य कथं सम्यग्दृष्टित्वमिति चेन्न, भूतपूर्वगत्या तस्य तद्वयपदेशोपपत्तेरिति । उक्तं च सम्मत्त-रयण-पव्यय सिहरादो मिच्छ-भूमि-समभिमुहो । ___णासिय-सम्मत्तो सो सासण-णामा मुणेयत्रो ॥ १०८ ॥ व्यामिश्ररुचिगुणप्रतिपादनार्थ सूत्रमाहसम्मामिच्छाइट्ठी ॥ ११ ॥ दृष्टिः श्रद्धा रुचिः प्रत्ययं इति यावत् । समीचीना च मिथ्या च दृष्टिर्यस्थासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः। अथ स्यादेकस्मिन् जीवे नाक्रमेण समीचीनासमीचीनदृष्टयोरस्ति संभवो विरोधात् । न क्रमेणापि सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणयोरेवान्तर्भावादिति । अक्रमेण सम्यग्दृष्टि होनेके कारण उसे सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं। शंका-सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्रायसे दूषित है, इसलिये उसके सम्यग्दृष्टिपना कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, पहले वह सम्यग्दृष्टि था, इसलिये भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा उसके सम्यग्दृष्टि संज्ञा बन जाती है। कहा भी है सम्यग्दर्शनरूपी रत्नागिरिके शिखरसे गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूपी भूमिके आभिमुख है, अतएव जिसका सम्यग्दर्शन नष्ट हो चुका है परंतु मिथ्यादर्शनकी प्राप्ति नहीं हुई है, उसे सासन या सासादनगुणस्थानवर्ती समझना चाहिये ॥ १०८॥ अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैंसामान्यसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं ॥११॥ दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची नाम हैं। जिस जीवके समीचीन और मिथ्या दोनों प्रकारकी दृष्टि होती है उसको सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं। शंका-एक जीवमें एकसाथ सम्यक् और मिथ्यारूपीष्ट संभव नहीं है, क्योंकि, इन दोनों दृष्टियोंका एक जीवमें एकसाथ रहनेमें विरोध आता है । यदि कहा जावे कि ये दोनों दृष्टियां क्रमसे एक जीवमें रहती हैं तो उनका सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नामके स्वतन्त्र १ गो. जी. २.. २ लब्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेन औषधिविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीय मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म शोधयित्वा विधा करोति, शुद्धमर्धशुद्धमविशुद्ध चेति । तत्र प्रयाणां पुजानां मध्ये यदार्धविशुद्धः पुन्ज उदेति तदा तदुदयाजीवस्यार्धविशुद्धं जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुहूर्तकालं स्पृशति । अभि. रा. को. (सम्मामिच्छादिहिगुणट्टाण) Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.on www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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