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________________ * १५६ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, १, ७. संतपरूवणानंतरं किमिद दव्वपमाणाणुगमो उच्चदे ? ण, णिय-संखा - गुणिदोगाहणखेत्तं खेत्तं' उच्चदे दि । एदं चेत्र अदीद-फुसणेण सह फोसणं उच्चदे । तदो दो वि अहिया संखा - जोणिणो । णाणेग- जीवे अस्सिऊण उच्चमाण-कालंतर परूवणा वि संखा-जोणी | इदं थोवमिदं च बहुवमिदि भण्णमाण- अप्पाचहुगं पि संखा - जोणी । तेण एदाणमा म्ह दव्वपमाणाणुगमो भणण- जोग्गो । एत्थ भावो किमिदि ण उच्चदे ? ण, तस्स बहुaणादो । कथं भावो बहु-वण्णणीयो ? ण, कम्म कम्मोदय-परूवणाहि विणा तस्स परूवणाभावादो । छ- वड्डि-हाणि-ट्ठिय-भाव-संखमंतरेण भाव-वण्णणाणुववती दो वा । माण- फासं वण्णेदि खेत्तं । फोसणं पुण अदीदं वट्टमाणं च वण्णेदि । अवगय- वट्टमाणफासो सुहेण दो वि पच्छा जागदु त्ति पोसणपरूवणादो होदु णाम पुत्रं खेत्तस्स शंका - सत्प्ररूपणा के बाद द्रव्यप्रमाणानुगमका कथन क्यों किया गया है ? समाधान - यह शंका भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अपनी अपनी संख्या से गुणित अवगाहनारूप क्षेत्रको ही क्षेत्रानुगम कहते हैं । और अपनी अपनी संख्या से गुणित अवगा - हनारूप क्षेत्र ही भूतकालीन स्पर्शनके साथ स्पर्शनानुगम कहा जाता है । इसलिये इन दोनों ही अधिकारोंका संख्याधिकार ( द्रव्यप्रमाणानुगम ) योनिभूत है । उसीप्रकार नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा वर्णन की जानेवाली कालप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणाका भी संख्याधिकार योनिभूत है । तथा यह 'अल्प है, यह बहुत है, इसप्रकार कहे जानेवाले अल्पबहुत्वानुयोगद्वारका भी संख्याधिकार योनिभूत है । इसलिये इन सबके आदिमें द्रव्यप्रमाणानुगमका ही कथन करना योग्य है । शंका- यहां भावप्ररूपणाका वर्णन क्यों नहीं किया गया है ? समाधान - उसका वर्णन करने योग्य विषय बहुत है, इसलिये यहां भावप्ररूपणाका वर्णन नहीं किया गया है । शंका- यह कैसे जाना जावे कि भावप्ररूपणा बहुवर्णनीय है ? समाधान - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि, कर्म और कर्मोदयके निरूपणके विना भावानुयोगद्व(रका निरूपण नहीं हो सकता है, इसलिये भाव बहुवर्णनीय है यह समझना चाहिये । अथवा, षड्गुणी हानि और षड्गुणी वृद्धिमें स्थित भावकी संख्याके विना भावप्ररूपणाका वर्णन नहीं हो सकता है, इसलिये भी यहां भावप्ररूपणा का वर्णन नहीं किया गया है । शंका- क्षेत्रानुयोग वर्तमानकालीन स्पर्शका वर्णन करता है । और स्पर्शनानुयोग rain और वर्तमानकालीन स्पर्शका वर्णन करता है । जिसने वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लिया है वह अनन्तर सरलतापूर्वक अतीत और वर्तमानकालीन स्पर्शको जान लेवे, इसलिये १ प्रतिषु ' खेतं ' इति पाठः नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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