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१५४ ] રૈખર
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
अणियोगो य नियोगो भास - विभासा य वट्टिया चेय । एदे अणिओअस्स दु णामा एयटुआ पंच' ॥ १०० ॥
[ १, १, ५.
सूई मुद्दा पडिहो संभवदल-बट्टिया चेय ।
अणियोग- णिरुत्तीए दिहंता होंति पंचेय ॥ १०१ ॥ अष्टावधारा अवश्यं ज्ञातव्याः भवन्त्यन्यथा जीवसमासावगमानुपपत्ते
अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्त्तिक ये पांच अनुयोगके एकार्थवाची नाम जानना चाहिये ॥ १०० ॥
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अनुयोगकी निरुक्तिमें सूची, मुद्रा, प्रतिघ, संभवदल और वर्त्तिका ये पांच दृष्टान्त होते हैं ॥ १०१ ॥
विशेषार्थ – अनुयोगकी निरुक्तिमें जो पांच दृष्टान्त दिये हैं वे लकड़ी आदिके कामको लक्ष्यमें रखकर दिये गये प्रतीत होते हैं । जैसे, लकड़ीसे किसी वस्तुको तैयार करनेके लिये पहले लकड़ी के निरुपयोगी भागको निकालनेके लिये उसके ऊपर एक रेखामें डोरा डाला जाता है, इसे सूचीकर्म कहते हैं । अनन्तर उस डोरासे लकड़ीके ऊपर चिन्ह कर दिया जाता है,
से मुद्राकर्म कहते हैं। इसके बाद लकड़ीके निरुपयोगी भागको छांटकर निकाल दिया जाता है, इसे प्रतिघ या प्रतिघातकर्म कहते हैं । फिर उस लकड़ीके कामके लिये उपयोगी जितने भागोंकी आवश्यकता होती है उतने भाग कर लिये जाते हैं इसे संभवदलकर्म कहते हैं । और अन्तमें वस्तु तैयार करके उसके ऊपर ब्रश आदिसे पालिश कर दिया जाता है, यही वर्त्तिकाकर्म है। इसतरह इन पांच कर्मों से जैसे विवक्षित वस्तु तैयार हो जाती है, उसीप्रकार अनुयोग शब्दसे भी आगमानुकूल संपूर्ण अर्थका ग्रहण होता है । नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक ये चारों अनुयोग शब्दके द्वारा प्रगट होनेवाले अर्थको ही उत्तरोत्तर विशद करते हैं, अतएव वे अनुयोगके ही पर्यायवाची नाम हैं ॥ १०१ ॥
ये आठ अधिकार अवश्य ही जानने योग्य हैं, क्योंकि, इनके परिज्ञानके विना जीव
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नियोगो यथा घटध्वनिना घट एवोच्यते नान्य इत्येवमादि । भाषणं भाषा, व्यक्तीकरणमित्यर्थः, तद्यथा, घटना घटः, चेष्टावानित्यर्थः । विविधा भाषा विभाषा, यथा घटः कुटः कुम्भ इत्येवमादि । ' वार्त्तिकं ' वृत्तौ भवं वार्त्तिकं, अशेषपर्यायकथनमित्यर्थः । अनुयोगस्य पुनरमूनि एकार्थिकानि पञ्चेति । वि. भा., को. वृ. १३९२.
१ आ. नि. १२५.
२ कट्ठे पोत्थे चित्ते सिरिघरिए बोंड- देसिए चेव । भासगविभासए वा वित्तीकरणे य आहरणा (नि. १२९ ) पढमो रूवागारं थूलावयवोवदंसणं बीओ । तहओ सव्वावयत्रे निद्दोसे सव्वहा कुणइ ॥ कट्ठसमाणं सुतं तदत्थरूवेगभासणं भासा । धूलत्थाण विभासा सव्वेसिं वत्तियं नेयं ॥ वि. भा. १४३३-१४३५. प्रथमः काष्ठे रूपकारो रूपमाविर्भावयति, ' डउलेइ ' ति भणियं होइ । तथा द्वितीयस्तु स्थूलावयवोपदर्शनं, ' वड्डेह' चि भणियं होह | तृतीयस्तु सर्वथा सर्वानवयवान्निर्दोषान् करोति, चीरयतीत्येवमाद्युक्तं भवतीति दृष्टान्तगाथार्थः । वि.भा., को. वृ. १४३४.
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