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१५२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ४. छप्पंच-णव-विहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं ।
आणाए हिगमेण व सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥ ९६ ॥ सम्यक् जानातीति संज्ञं मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी। नैकेन्द्रियादिनातिप्रसङ्गः तस्य मनसोऽभावात् । अथवा शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी । उक्तं च
सिक्खा-किरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण ।
जो जीवो सो सण्णी तबिवरीदो असण्णी हूँ ॥ ९७ ॥ शरीरप्रायोग्यपुद्गलपिण्डग्रहणमाहारः । सुगममेतत् । उक्तं च
आहरदि सरीराणं तिण्हं एगदर-वग्गणाओ जं । भासा-मणस्स णियदं तम्हा आहारओ भणिओं ॥ ९ ॥
जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा उपदेश दिये गये छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नव पदाढेका आक्षा अर्थात् आप्तवचनके आश्रयसे अथवा अधिगम अर्थात् प्रमाण, नय, निक्षेप और निरुक्तिरूप अनुयोगद्वारोंसे श्रद्धान करनेको सम्यक्त्व कहते हैं ॥९६॥
जो भलीप्रकार जानता है उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं। वह मन जिसके पाया जाता है उसको संज्ञी कहते हैं। यह लक्षण एकेन्द्रियादिकमें चला जायगा, इसलिये अतिप्रंसग दोष आजायगा यह बात भी नहीं है, क्योंकि, एकेन्द्रियादिकके मन नहीं पाया जाता है। अथवा, जो शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है उसको संशी कहते हैं।
कहा भी है
जो जीव मनके अवलम्बनसे शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलापको ग्रहण करता है उसे संझी कहते हैं। और जो इन शिक्षा आदिको ग्रहण नहीं कर सकता है उसको असंझी कहते हैं ॥ ९७॥
औदारिकादि शरीरके योग्य पुद्गलपिण्डके ग्रहण करनेको आहार कहते हैं। इसका अर्थ सरल है । कहा भी है
औदारिक, वैक्रियक और आहारक इन तीन शरीरों से उदयको प्राप्त हुए किसी
१ गो. जी. ५६१. आणाए आज्ञया प्रमाणादिभिर्विना ईषनिर्णयलक्षणया । अहिगमेण अधिगमेण प्रमाणनयआप्तवचनाश्रयेण निक्षेपनिरुक्त्यनुयोगद्वारैः विशेषनिर्णयलक्षणेन । जी. प्र. टी.
२ हिताहितविधिनिषेधात्मिका शिक्षा | करचरणचालनादिरूपा क्रिया । चर्मपुत्रिकादिनोपदिश्यमानवधविधानादिरुपदेशः। श्लोकादिपाठ आलापः। तद्ग्राही मनोऽत्रलंबेन यो मनुष्यः उक्षगजराजकीरादिजीवः स संज्ञी नाम ।
गो. जी., जी, प्र., टी. ६६२. ३ गो. जी. ६६१. मीमसदि जो पुव्वं कज्जमकजं च तच्चमिदरं च । सिक्खदि णामणेदि य समणो अमणो य विवरीदो ॥ गो. जी. ६६१.
४ गो. जी. ६६५. तत्र च ' भासामणस्स' स्थाने ' भासामणाण ' इति पाठः । उदयावण्णसरीरोदएण तद्देहवयणचित्ताणं । णोकम्मवग्गणाणं गहणं आहारयं णाम ॥ गो. जी. ६६४.
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