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१, १, २. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं
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बंधविहाणं चउब्विहं । तं जहा, पयडिबंधो डिदिबंधो अणुभागबंधो पदेसबंधो चेदि । तत्थ जो सो पयडिबंधो सो दुविहो, मूलपयाडेबंधो उत्तरपयडिबंधो चेदि । तत्थ जो सो मूलपयडिबंधो सो थप्पो । जो सो उत्तरपयडिबंधो सो दुविहो, एगेगुत्तरपयडिंबंधो अच्वोगाढउत्तरपयडिबंधो चेदि । तत्थ जो सो एगेगुत्तरपयडिबंधो तस्स चवसि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा, समुक्कित्तणा सव्वबंधो सबंध उक्क सबंधो अणुक्कस्सबंधो जहण्णबंधो अजहण्णबंधो सादियांघो अणादियबंधो धुवबंधो अद्भुवबंध बंधसामित्तविचयो बंधकालो बंधतरं बंधसण्णियासो णाणाजीवेहि भंगविचयो भागाभागाणुनमो परिमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालानुगमो अंतराणुगमो भावानुगमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि । एदेसु समुत्तिणादो पयडिसमुत्तिणा द्वाणसमुक्कित्तणा तिण्णि महादंडया णिग्गया । तेवीसदिमादो भावो णिग्गदो । जो सो अव्वोगादुत्तरपयडिबंधो सो दुविहो, भुजगारबंधो पयडिट्ठाणबंधो वेदि । जो सो भुजगारबंधो तस्स अट्ठ अणियोगद्दाराणि सो थप्पो । जो सो पयडिद्वान बंधो तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि । तं जहा, संतपरूवणा दध्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो पोसणाणुगमो कालानुगमो अंतराणुगमो भावानुगमो अप्पा बहुगागमो चेदि । एदे असु अणियोगद्दारेषु छ अणियोगद्दाराणि णिग्गयाणि । तं जहा, संतपरूवणा
बन्धविधान चार प्रकारका है, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध । उन चार प्रकार के बन्धमेंसे मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्धके भेदसे प्रकृतिबन्ध दो प्रकारका है। उनमें से, मूलप्रकृतिबन्धका वर्णन स्थगित करके उत्तरप्रकृतिबन्धके भेदोंका वर्णन करते हैं। वह उत्तरप्रकृतिबन्ध दो प्रकारका है, एकैकोत्तर प्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढ उत्तरप्रकृतिबन्ध | उनमें से जो एकैकोत्तर प्रकृतिबन्ध है उसके चौवीस अनुयोगद्वार होते हैं । वे इसप्रकार है, समुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रुवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्धान्तर, बन्धसन्निकर्ष, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम, और अल्पबहुत्वानुगम । इन चौवीस अधिकारों में जो समुत्कीर्तन नामका अधिकार है उसमें प्रकृतिसमुत्कीर्तना, स्थानसमुत्कीर्तना और तीन महादण्डक निकले हैं और तेवीसवें भावानुगमसे भावानुगम निकला है ।
जो अवगढ़ उत्तरप्रकृतिबन्ध है वह दो प्रकारका है, भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध । उनमेंसे, भुजगारबन्धके आठ अनुयोगद्वारोंके वर्णनको स्थगित करके प्रकृतिस्थानबन्धमें जो आठ अनुयोगद्वार होते हैं उनका वर्णन करते हैं। वे इसप्रकार हैं, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम | इन आठ अनुयोगद्वारोंमेंसे छह अनुयोगद्वार निकले हैं। वे इसप्रकार हैं, सत्प्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा,
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