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________________ १, १, २.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं [ १२५ वेयणा कम्माणमुदयो तं कसिणं णिरवसेसं वणेदि, अदो वेयणकसिणपाहुडमिदि एदमवि गुणणाममेव । पमाणमक्खर-पय-संघाय-पडिवत्ति-अणियोगद्दारेहि संखेजमत्थदो अणंतं । वत्तव्यं ससमयो । अत्थाहियारो चउवीसदिविहो । तं जहा, कदी वेदणाए फासे कम्मे पयडी सुबंधणे णिबंधणे परमे उवकमे उदए मोक्खे संकम लेस्सा लेस्सायम्मे लेस्सापरिणामे सादमसादे दीहे रहस्से भवधारणीए पोग्गलत्ता णिवत्तमणिधत्तं णिकाचिदमणिकाचिदं कम्मट्ठिदी पच्छिमक्खंधे त्ति । अप्पाबहुगं च सव्वत्थ, जेण चउवीसहमणियोगद्दाराणं साहारणो तेण पुह अहियारो ण होदि त्ति । एत्थ किं कदीदो, किं वेयणादो ? एवं पुच्छा सव्वत्थ कायव्वा । णो कदीदो णो वेयणादो, एवं वारणा सव्वेसि णेयव्वा । बंधणादो। तस्स उवक्कमो पंचविहो, आणुपुव्वी णामं पमाणं वत्तव्यदा अत्थाहियारो चेदि । तत्थ आणुपुची तिविहा, पुव्वाणुपुची पच्छाणपुवी जत्थतत्थाणुपुची चेदि। तत्थ पुव्वाणुपुत्रीए गणिजमाणे छट्ठादो, पच्छाणुपुचीए निरवशेषरूपसे वर्णन करता है, इसलिये वेदनाकृत्स्नप्राभृत यह भी गौण्यनाम है। यह अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगरूप द्वारोंकी अपेक्षा संख्यातप्रमाण और अर्थकी अपेक्षा अनन्तप्रमाण है । स्वसमयका ही कथन करनेवाला होनेके कारण इसमें स्वसमयवक्तव्यता है। कर्मप्रकृतिप्राभृतके अधिकार चौवीस प्रकारके हैं वे इसप्रकार हैं। कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, सुबन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म लेश्यापरिणाम, सातअसात, दीर्घहस्व, भवधारणीय, पुद्गलत्व, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित अनिकाचित, कर्मस्थिति और पश्चिमस्कंध । इन चौवीस अधिकारों में अल्पबहुत्व लगा लेना चाहिये, क्योंकि, चौवीस ही अधिकारोंमें अल्पबहुत्व साधारण अर्थात् समानरूपसे है। इसलिये अल्पबहुत्वनामका पृथक् अधिकार नहीं हो सकता है। यहां पर क्या कृतिसे प्रयोजन है, क्या वेदनासे प्रयोजन है ? इसतरह सब अधिकारोंके विषयमें पृच्छा करनी चाहिये। यहां पर न तो कृतिसे प्रयोजन है, न वेदनासे ही प्रयोजन है, इसतरह सबका निषेध कर देना चाहिये। किंतु बन्धन अधिकारसे प्रयोजन है, इसतरह उत्तर देना चाहिये। उस बन्धन नामके अधिकारका उपक्रम पांच प्रकारका है, आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । उनमेंसे, पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वीके भेदसे आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है । उन तीनों से, पूर्वानुपूर्वीसे गिननेपर पंचमत्रस्तुचतुर्थप्राभृतकस्यानुयोगनामानि । कृतिवेदने तथैव स्पर्शनकर्म प्रकृतिमेव ॥ बंधननिबंधनप्रक्रमानुपक्रममथाभ्युदयमोक्षौ । संक्रमलेश्ये च तथा लेश्यायाः कर्मपरिणामौ ॥ सातमसातं दीर्घ -हस्त्रं भवधारणीयसंझं च । पुरुपुद्गलात्मनाम च निधत्तमनिधत्तमभिनौमि ॥ सनिकाचितमनिकाचितमय कर्मस्थितिकपश्चिमस्कंधौ । अल्पबहुत्वं च यजे तद्वाराणां चतुर्विशम् ॥ द. भ. पृ. ९ . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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