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१०८] छक्खंडागमे जीवाणं
[१,१,२. कपिलोलूक-गार्ग्य-व्याघ्रभूति-वाद्वलि-माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः, शाकल्य-वल्कल-कुथुमि-सात्यमुनि-नारायण-कण्व-माध्यंदिन-मोद-पैप्पलाद-बादरायण-स्वष्टकृदैतिकायन-वसु-जैमिन्यादीनामज्ञानिक दृष्टीनां सप्तषष्टिः, वशिष्ठ-पाराशर-जतुकर्ण-वाल्मीकि-रोमहर्षणी-सत्यदत्त-व्यासैलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् । एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्टयुत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते।
एत्थ किमायारादो, एवं पुच्छा सव्वेसि । णो आयारादो, एवं वारणा सव्वेसिं, दिविवादादो । तस्स उवक्कमो पंचविहो, आणुपुची णाम पमाणं वत्तव्बदा अत्थाहियारो चेदि । तत्थ आणुपुव्वी तिविहा, पुव्वाणुपुवी पच्छाणुपुवी जत्थतत्थाणुपुवी चेदि ।
वाद्वलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावादियोंके चौरासी मतोंका, शाकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण, कण्व, माध्यंदिन, मोद, पैप्पलाद, बादरायण स्वेटकल, ऐतिकायन वसु और जमिनी आदि अज्ञानवादियोंके सरसठ मतोंका तथा वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यु, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूण आदि वैनयिकवादियों के बत्तीस-मतोंका वर्णन और निराकरण किया गया है। ऊपर कहे हुए क्रियावादी आदिके कुल भेद तीनसौ त्रेसठ होते हैं।
___ इस शास्त्रमें क्या आचारांगसे प्रयोजन है, क्या सूत्रकृतांगसे प्रयोजन है, इसतरह बारह अंगोंके विषयमें पृच्छा करनी चाहिये । और इसतरह पूंछे जाने पर यहां पर न तो आचारांगसे प्रयोजन है, न सूत्रकृतांग आदिसे प्रयोजन है इसतरह सबका निषेध करके यहां पर दृष्टिवाद अंगसे प्रयोजन है ऐसा उत्तर देना चाहिये । उसका उपक्रम पांच प्रकारका है, आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अधिकार । इनसेंसे, पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वीके भेदसे आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है। यहां पूर्वानुपूर्वीसे गिनने पर बारहवें
परिकम्मं सुत्ताई पुब्बगयं अणुओगो चूलिया । परिकम्भे सत्तविहे xxx | सुत्ताई अट्टासीति भवतीति मक्खायाइंxxx / पुत्रगयं चउद्दसविहं पन्नत्तं । अणुओगे दुविहे पन्नत्ते xxx | जणं आइल्याणं चउण्हं पुत्राणं चूलियाओ, सेसाई पुव्वाई अचूलियाई सेत्तं चूलियाओ । सम. सू. १४७.
१ कौत्कलकांडेविद्धिकौशिकहरिश्मश्रुमायिकरोमसहारीतमुंडाश्वलायलादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशत । मरीचकुमारकपिलोलूकगार्यव्याघ्रभूतिवाद्धलिमाठरमोदल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः । शकल्यवात्कलकुथुमिसात्यमुगिनारायणकंठमाध्यदिन मोदपैप्पलादवादरायणांबष्टीकृदैरिकायनवसुजैमिन्यादीनामज्ञान कुदृष्टीनां सप्तषष्टिः । वशिष्ठपाराशरजतुकीर्णवाल्मीकिरोमर्षिसत्यदत्तव्यासैलापुत्रोपमन्यबैन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टानां द्वात्रिंशत् । त. रा. वा. पृ. ५१. ' काणेविद्धि' स्थाने ' कंठेविद्धि', 'मांद्धपिक' स्थाने 'माधंपिक', 'कण्व ' स्थाने 'कठ', 'स्त्रष्टकृत् ' स्थाने स्त्रिष्टिक्य', 'जतुकर्ण' स्थाने 'जतुष्कर्ण', 'अयस्थूण ' स्थाने ' अगस्त्य पाठा उपलभ्यन्ते । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६०.
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