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________________ १०६ ] छक्खंडागमे जीवाणं आक्षेपणी' तत्वविधानभूतां विक्षेपणीं तत्यदिगन्तशुद्धिम् । संवेगिनीं धर्मफलप्रपञ्चां निर्वेगिनीं चाह कथां विरागाम् ॥ ७५ ॥ एत्थ विक्खेवणी णाम कहा जिण वयणमयाणंतस्स ण कहेयव्वा, अगहिद-ससमय - सन्भावो पर समय- संकहाहि वाउलिद-चित्तो मा मिच्छत्तं गच्छेज ति तेण तस्स विक्वणी मोत्तूण सेसाओ तिणि वि कहाओ कहेयव्त्राओ । तदो गहिद- समयस्स उवलद्ध - पुण-पावस्स जिण सासणे अट्ठि- मणुरत्तस्सं जिण वयण- णित्रिदिगिच्छस्स भोग [ १, १, २. तत्वोंका निरूपण करनेवाली आक्षेपणी कथा है । तत्वसे दिशान्तरको प्राप्त हुई दृष्टियोंका शोधन करनेवाली अर्थात् परमतकी एकान्त दृष्टियोंका शोधन करके स्वसमयकी स्थापना करनेवाली विक्षेपणी कथा है । विस्तारसे धर्मके फलका वर्णन करनेवाली संवेगिनी कथा है। और वैराग्य उत्पन्न करनेवाली निर्वेगिनी कथा है। इन कथाओं का प्रतिपादन करते समय जो जिनवचनको नहीं जानता है, अर्थात् जिसका जिनवचनमें प्रवेश नहीं है, ऐसे पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश नहीं करना चाहिये, क्योंकि, जिसने स्वसमयके रहस्यको नहीं जाना है और परसमयकी प्रतिपादन करनेवाली कथाओं के सुननेसे व्याकुलित चित्त होकर वह मिथ्यात्वको स्वीकार न कर लेवे, इसलिये स्वसमयके रहस्यको नहीं जाननेवाले पुरुषको विक्षेपणी कथाका उपदेश न देकर शेष तीन कथाओं का उपदेश देना चाहिये । उक्त तीन कथाओं द्वारा जिसने स्वसमयको भलीभांति समझ लिया है, जो पुण्य और पापके स्वरूपको जानता है, जिसतरह मज्जा अर्थात् हड्डियोंके मध्य में रहनेवाला कथनरूपा निर्वेजनी कथा । गो. जी, जी. प्र., टी. ३५७. १ आक्षिप्यते मोहात्तत्वं प्रत्याकृष्यते श्रोताऽनयेत्या क्षेपणी । चतुर्विधा सा आयारक्खेवणी, ववहारक्खेवणी, पण्णत्तिक्खेवणी, दिट्ठिवायक्खेवणी । आचारो लोचास्नानादिः, व्यवहारः कथंचिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चितलक्षणः, प्रज्ञप्तिश्च संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना, दृष्टिवादश्च श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकथनम् । विज्जाचरणं च तवो य पुरसकारो य समिर गुत्तीओ । उवहस्सह खलु जहियं कहाइ अक्खेवणीइरसो ॥ अभि. रा. को. (अक्खेवणी ). २ विक्षिप्यते सन्मार्गात्कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोताग्नयेति विक्षेपणी । सा चउव्विहा पण्णत्ता । तं जहा, ( १ ) ससमयं कहता परसमयं कहेइ । ( २ ) परसमयं कहता ससमयं ठावित्ता भवइ । (३) सम्मावार्य कहेइ, सम्मावार्य कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ । ( ४ ) मिच्छावायं कहेत्ता सम्मावार्य ठावइत्ता भवइ ॥ जा ससमयवज्जा खलु होइ कहा लोगवेयसंजुत्ता । परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी णाम || अभि. रा. को. [ विक्खेवणी ]. Jain Education International ३ आक्खेवणी कहा सा विज्जाचरणमुवदिस्सदे जत्थ । ससमयपरसमयगदा कथा दु विक्खेवणी णाम || संवेयणी पुण कहा णाण चरिचं तववीरियइड्डिगदा । णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोघे य ॥ मूलारा. ६५६, ६५७. ४ वेणइयस्स पढमया कहा उ अक्खेवणी कहेयव्त्रा । तो ससमयगहियत्थे कहिज्ज विक्खेवणी पच्छा ॥ अक्खेवाण अक्खित्ता जे जीवा ते लभंति सम्मत्तं । विक्खेवणीए भज्जां गाढतरागं च मिच्छतं ॥ अभि. रा. को. [ धम्मकहा ]. ५ भावाणुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरतो वा । धम्माणरागरतो य होइ जिणसासणे णिचं ॥ मूलारा. ७३७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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