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________________ [९१ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं एवम्भूते समुत्पन्नत्वात् । एवमेते संक्षेपेण नयाः सप्तविधाः, अवान्तरभेदेन पुनरसंख्येयाः । एते च पुनर्व्यवहर्तृभिरवश्यमवगन्तव्याः अन्यथार्थप्रतिपादनावगमानुपपत्तेः । उत्तं च णस्थि णएहि विहूणं सुतं अत्थो व्व जिणवरमदम्हि । तो णय-वादे णिउणा मुणिणो सिद्धतिया होंति ॥ ६८ ॥ तम्हा अहिगय-सुत्तेण अथ-संपायणम्हि जइयव्वं । अत्थ-गई वि य णय-वाद-गहण-लीणा दुरहियम्मा ॥ ६९॥ एवं णय-परूवणा गदा । अणुगमं वत्तइस्सामो _ एत्तो इमेसिं चोदसण्हं जीव-समासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोदस चेव ट्ठाणाणि णायव्वाणि भवंति ॥२॥ है यह बात सिद्ध हो जाती है। इसलिये एक पद एक ही अर्थका पाचक होता है। इसप्रकारके विषय करनेवाले नयको एवंभूतनय कहते हैं। इस नयकी दृष्टिमें एक गो शब्द नाना अर्थों में नहीं रहता है, क्योंकि, एकस्वभाववाले एक पदका अनेक अर्थों में रहना विरुद्ध है। अथवा. पदमें रहनेवाले वर्गों के भेदसे वाच्यभेदका निश्चय करानेवाला भी एवंभूतनय है, क्योंकि, यह नय इसी रूपमें उत्पन्न होता है । इसतरह ये नय संक्षेपसे सात प्रकारके और अवान्तर भेदोंसे असंख्यात प्रकारके समझना चाहिये । व्यवहारकुशल लोगोंको इन नयोंका स्वरूप अवश्य समझ लेना चाहिये। अन्यथा, अर्थात् नयोंके स्वरूपको समझे बिना पदार्थों के स्वरूपका प्रतिपादन और उसका ज्ञान अथवा पदार्थोके स्वरूपके प्रतिपादनका ज्ञान नहीं हो सकता है। कहा भी है 'जिनेन्द्रभगवान्के मतमें नयवादके विना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं कहा गया है । इसलिये जो मुनि नयवादमें निपुण होते हैं वे सच्चे सिद्धान्तके ज्ञाता समझने चाहिये। भतः जिसने सूत्र अर्थात् परमागमको भलेप्रकार जान लिया है उसे ही अर्थसंपादनमें अर्थात् के द्वारा पदार्थके परिज्ञान करनेमें प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि, पदार्थोका परिज्ञान भी नयवादरूपी जंगलमें अन्तर्निहित है अतएव दुरधिगम्य अर्थात् जाननेके लिये कठिन है ॥ ६८, ६९ ॥ इसतरह नयप्ररूपणाका वर्णन समाप्त हुआ। अब अनुगमका निरूपण करते हैं। इस द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप प्रमाणसे इन चौदह गुणस्थानोंके अन्वेषणरूप प्रयोजनके होने पर ये चौदह ही मार्गणास्थान जानने योग्य हैं ॥२॥ १ नत्थि नएहि विहूर्ण सुत्त अत्यो य जिणमए किंचि । आसज्ज उ सीयारं नए नयविसारओ बूआ॥ आ. नि. ६६१. सुतं अथिमिमेणं न सुत्समेत्तेण अथपडिबत्ती । अस्थगई उण णयवायगहणलीणा दुरभिगम्मा ।। तम्हा अहिगयसुत्तेण अत्थसंपायणम्मि जइयन्त्रं । आयरियारहत्या हंदि महाणं विलंबेन्ति ॥ स. त. ३, ६४, ६५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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