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________________ ८] छक्खंडागमे जीववाणं छक्खंडागमे जीवट्ठाण [१, १, १. परि भेदमेति गच्छतीति पर्यायः, पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । तत्र द्रव्यार्थिकस्त्रिविधः, नैगमः संग्रहो व्यवहारश्चेति । विधिव्यतिरिक्तप्रतिषेधानुपलम्भाद्विधिमात्रमेव तत्वमित्यध्यवसायः समस्तस्य' ग्रहणात्संग्रहः । द्रव्यव्यतिरिक्तपर्यायानुपलम्भाद् द्रव्यमेव तत्त्वमित्यध्यवसायो वा संग्रहः। संग्रहनयाक्षिप्तानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं भेदनं व्यवहारः', व्यवहारपरतन्त्रो व्यवहारनय इत्यर्थः । यदस्ति न तद् द्वयमतिलय वर्तत इति नैकगमो नैगमः, संग्रहासंग्रहस्वरूपद्रव्यार्थिको नैगम इति यावत् । एते त्रयोऽपि नयाः नित्यवादिनः स्वविषये पर्यायाभावतः सामान्य कहते हैं। द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन हो उसे द्रव्यार्थिकनय कहते हैं। 'परि' अर्थात् भेदको जो प्राप्त होता है उसे पर्याय कहते हैं। वह पर्याय ही जिस नयका प्रयोजन हो उसे पर्यायार्थिकनय कहते हैं। द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद हैं-नैगमनय, संग्रहनय और व्यवहारनय। विधि अर्थात सत्ताको छोड़कर प्रतिषेध अर्थात् असत्ताकी प्राप्ति नहीं होती है, इसलिये विधिमात्र ही तत्व है। इसप्रकारके निश्चय करनेवाले नयको समस्तका ग्रहण करनेवाला होनेसे संग्रहनय कहते हैं। अथवा, द्रव्यको छोड़कर पर्यायें नहीं पाई जाती हैं, इसलिये द्रव्य ही तत्व है। इसप्रकारके निश्चय करनेवाले नयको संग्रहनय कहते हैं। संग्रहनयसे ग्रहण किये गये पदार्थोके विधिपूर्वक भेद करनेको व्यवहार कहते हैं। उस व्यवहारके आधीन चलनेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं। जो है वह उक्त दोनों अर्थात् संग्रह और व्यवहारको छोड़कर नहीं रहता है। इसतरह जो केवल एकको ही प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् अनेकको प्राप्त होता है उसे नैगमनय कहते हैं । अर्थात् संग्रह और असंग्रहरूप जो द्रव्यार्थिक नय है वह ही नैगमनय है। ये तीनों ही नय नित्यवादी हैं, क्योंकि, इन तीनों ही नयोंका विषय पर्याय न होनेके कारण इन तीनों नयोंके विषयमें १ प्रतिषु · समनस्य ' इति पाठः । २ सद्रूपतानतिक्रान्तस्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् संग्रहो मतः ॥ स. त. टी. पृ. ३११. स्वजात्यविरोधेनैकत्वमुपनीय पर्यायानाकान्तभेदानविशेषेण समस्तग्रहणासंग्रहः । स. सि. १, ३३. स्वजात्यविरोधेनैकत्वोपनयात्समस्तग्रहणं संग्रहः । त. रा. वा. १, ३३. एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संग्रहो मतः । सजातरविरोधेन दृष्टेष्टाभ्यां कथंचन ॥ त. श्लो. वा. १,३३, ४९. ३ स. सि. १,३३. त. रा. वा. १, ३३. प्र. क. मा. पृ. २०५. संग्रहण गृहीतानामनां विधिपूर्वकः । योऽवहारो विभागः स्याद्वयवहारो नयः स्मृतः॥त. श्लो. वा. १, ३३, ५८. व्यवहारस्तु तामेव प्रतिवस्तु व्यवस्थिताम् । तथैव दृश्यमानत्वाद व्यवहारयति देहिनः ॥ स. त. टी. पृ. ३११. ४ अनभिनिवृत्तार्थसङ्कल्पमात्रग्राही नैगमः । स. सि. १, ३३. अर्थसङ्कल्पमातग्राही नेगमः । त. रा. वा. १, ३३. तत्र सङ्कल्पमात्रस्य ग्राहको नेगमो नयः । त. श्लो. वा. १, ३३. अनिष्पन्नार्थसङ्कल्पमात्रग्राही नैगमः । प्र. क. मा. पृ. २०५. अन्यदेव हि सामान्यमभिन्नज्ञानकारणम् । विशेषोऽप्यन्य एवेति मन्यते निगमो नयः ॥ स.त. टी. पू. ३११. नैकैनिमहासत्तासामान्याविशेषविशेषज्ञानमिमीते मिनोति वा नैकमः । निगमेष वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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