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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं सुत्तावदारस्स ण अण्णेस्सेति ? पयरणादो । 'भोयण-वेलाए सेंधवमाणि ' त्ति वयणादो लोण इव । बद्ध-बंध-बंधकारण-मुक्क-मोक्ख-मोक्खकारणाणि णिक्खेव-णय-प्पमाणाणियोग-द्दारेहि अहिगम्म भविय-जणो जाणदु त्ति सुत्तमोइण्णं अत्थदो तित्थयरादो, गंथदो गणहर-देवादो त्ति। द्रव्यभावाभ्यामकृत्रिमत्वतः सदा स्थितस्य श्रुतस्य कथमवतार इति चेदेतत्सर्वमभविष्यद्यदि द्रव्यार्थिकनयोऽविवक्षिष्यत् । पर्यायार्थिकनयापेक्षायामवतारस्तु पुनघटत एव । छद्दव्व-णव-पयत्थे सुय-णाणाइच-दिप्प-तेएण । पस्संतु भव-जीवा इय सुय-रविणो हवे उदयों ॥ ३५ ॥ साम्प्रतं हेतुरुच्यते । तत्र हेतुर्द्विविधः प्रत्यक्षहेतुः परोक्षहेतुरिति । कस्य हेतुः ? शंका-यह कैसे जाना जाता है कि यहां पर सूत्रावतारके निमित्तका कथन किया जाता है, अन्यका नहीं। समाधान-यह बात प्रकरणसे जानी जाती है। जैसे भोजन करते समय 'सैन्धव लाओ' इसप्रकारके वचनसे सेंधे नमकका ही शान होता है, उसीप्रकार यहां पर भी समझ लेना चाहिये कि यहां पर ग्रन्थावतारके निमित्तका ही कथन किया जा रहा है। बद्ध, बन्ध, बन्धके कारण, मुक्त, मो । और मोक्षके कारण, इन छह तत्वोंको निक्षेप. नय, प्रमाण और अनुयोगद्वारोंसे भलीभांति समझकर भव्यजन उनके ज्ञाता बने, इसलिये यह सूत्र-ग्रन्थ अर्थ-प्ररूपणाकी अपेक्षा तीर्थकरसे और ग्रन्थरचनाकी अपेक्षा गणधरदेवसे अवतीर्ण हुआ है। शंका-द्रव्य और भावसे अकृत्रिम होनेके कारण सर्वदा एकरूपसे अवस्थित श्रुतका अवतार कैसे हो सकता है ? समाधान-यह शंका तो तब बनती जब यहां पर द्रव्यार्थिक नयकी विवक्षा होती। परंतु यहां पर पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा होनेसे श्रुतका अवतार तो बन ही जाता है। भव्य-जीव श्रुतज्ञानरूपी सूर्यके दीप्त तेजसे छह द्रव्य और नव पदार्थों को देखें अर्थात् भलीभांति जाने, इसीलिये श्रुतज्ञानरूपी सूर्यका उदय हुआ है ॥ ३५ ॥ अब हेतुका कथन किया जाता है, हेतु दो प्रकारका होता है, एक प्रत्यक्ष हेतु और दूसरा परोक्ष हेतु। शंका-- यहां पर किसके हेतुका कथन किया जाता है ? -मनसा अनिच्च । द. वै. ९, १३. १ प्रतिषु ' यण्णस्स' इति पाठः । २ छद्दवणवपयत्त्थे सुदणाणंदुमणिकिरणसत्तीए । देक्खंतु भवजीवा अण्णाणतमेण सच्छण्णा ।। ति.प.१,३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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