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________________ ४०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १.. मज्झे अवसाणे च वत्तव्वं । उत्तं च आदीवसाण-मझे पण्णत्तं मंगलं जिणिंदेहिं । तो कय-मंगल-विणयो वि णमो-सुत्तं पवस्खामि ॥ १९॥ तिसु हाणेसु मंगलं किमर्ल्ड वुच्चदे ? कय-कोउंय-मंगल-पायच्छित्ता विणयोवगया सिस्सा अज्झेदारो सोदारो वत्तारो आरोग्गमविग्घेण विजं विजा-फलं पावेंतु त्ति। उत्तं च आदिम्हि भद्द-वयणं सिस्सा लहु-पारया हवंतु त्ति । मझे अब्बोच्छिति य विज्जा विजा-फलं चरिमे ॥ २० ॥ चाहिये । कहा भी है जिनेन्द्रदेवने आदि, अन्त और मध्यमें मंगल करनेका विधान किया है। अतः मंगलविनयको करके भी मैं नमोकार-सूत्रका वर्णन करता हूं ॥ १९ ॥ शंका-ग्रन्थके आदि, मध्य और अन्त, इसप्रकार तीन स्थानोंमें मंगल करनेका उपदेश किसलिये दिया गया है ? समाधान-मंगलसंबन्धी आवश्यक कृतिकर्म करनेवाले तथा मंगलसंबन्धी प्रायश्चित्त करनेवाले अर्थात् मंगलके लिये आगे प्रारंभ किये जानेवाले कार्यमें दुःस्वप्नादिकसे मनमें चंचलता आदि न हो इसलिये प्रायश्चित्तस्वरूप मंगलीक दधि, अक्षत, चन्दनादिकको सामने रखनेवाले और विनयको प्राप्त ऐसे शिष्य, अध्येता अर्थात् पढ़नेवाले, श्रोता और वक्ता आरोग्य और निर्विघ्नरूपसे विद्या तथा विद्याके फलको प्राप्त हों, इसलिये तीनों जगह मंगल करनेका उपदेश दिया गया है। कहा भी है• शिष्य सरलतापूर्वक प्रारंभ किये गये ग्रंथाध्ययनादि कार्यके पारंगत हों इसलिये आदिमें भद्रवचन अर्थात् मंगलाचरण करना चाहिये। प्रारम्भ किये गये कार्यकी व्युच्छित्ति न हो इसलिये मध्यमें मंगलाचरण करना चाहिये, और विद्या तथा विद्याके फलकी प्राप्ति हो इसलिये अन्तमें मंगलाचरण करना चाहिये ॥२०॥ १ सौभाग्यादिनिमित्तं यत्स्नपनादि क्रियते तत्कौतुकम् । उक्तं च, सोहग्गादिणिमित्तं परेसिं ण्हवणादि कोउगं भणियं ।। णाया १, १४. २ कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नादिविघातार्थमवश्यकरर्णायत्वायैस्ते तथा । अन्ये त्वाहुः 'पायच्छित्त' ति पादेन पादे वा छुप्ताश्चक्षुर्दोषपरिहारार्थ पादच्छुप्ताः । कृतकौतुकमङ्गलाश्च ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रहः ।। तत्र कौतुकानि मषीतिलकादीनि, मङ्गलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्षतर्वाङ्करादि । भग. २, ५, १०८. टीका. ३ पटमे मंगलवयणे सिस्सा सत्त्थस्स पारगा होति । मडिझम्मे णिविग्धं विज्जा विज्जाफलं चरिमें ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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