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प्रयत्नका सुफल है कि आज हमें इन महान् सिद्धान्तोंके एक अंशको सर्वसुलभ बनानेका सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। स्व. लाला जम्बूप्रसादजी रईसकी भी लक्ष्मी सफल है जो उन्होंने इन ग्रंथों की एक प्रतिलिपिको अपने यहां सुरक्षित रखनेकी उदारता दिखाई और इस प्रकार उनके प्रकट होने में निमित्त कारण हुए। हमारे विशेष धन्यवाद के पात्र स्व. पं. गजपतिजी उपाध्याय और उनकी स्व. भार्या विदुषी लक्ष्मीबाई तथा पं. सीतारामजी शास्त्री हैं जिन्होंने इन ग्रंथोंकी प्रतिलिपियोंके प्रचारका कठिन कार्य किया और उस कारण उन भाइयोंके क्रोध और विद्वेषको सहन किया जो इन ग्रंथोंके प्रकट होनेमें अपने धर्मकी हानि समझते हैं । श्रीमान् सिंघई पन्नालालजीने जिस धार्मिकभाव और उत्साहसे बहुत धन व्यय करके इन ग्रंथोंकी प्रतियां अमरावती में मंगाई और उन्हें संशोधन व प्रकाशनके लिये हमें प्रदान कीं उसका ऊपर उल्लेख कर ही आये हैं। इस कार्यके लिये उनका जितना उपकार माना जावे सब थोड़ा है। प्रिय सुहृत् बैरि जमनाप्रसादजी सबजजका भारी उपकार है जो उन्होंने सेठ लक्ष्मीचन्द्रजीको इस साहित्योद्धार कार्यके लिये प्रेरित किया। वे ऐसे धार्मिक व सामाजिक कार्यों में सदैव कप्तानका कार्य किया करते हैं । श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी तो इस समस्त व्यवस्थाके आधार स्तम्भ ही हैं। आर्थिक संकटमय वर्तमान कालमें उनके हायस्कूल, छात्रवृत्ति, व साहित्योद्धार निमित्त दिये हुए अनेक बड़े बड़े दानोंद्वारा धर्म और समाजका जो उपकार हो रहा है उसका पूरा मूल्य अभी आंका नहीं जा सकता। वह कार्य कदाचित् हमारी भावी पीढ़ीद्वारा ही सुचारुरूपसे किया जा सकेगा। सेठजीको उनके इन उदार कार्योंमें प्रवृत्त कराने और उनका निर्वाह करानेवाले भेलसा निवासी सेठ राजमलजी बड़जात्या और श्रीमान् तखतमलजी वकील हैं जिन्होंने इस योजनामें भी बड़ी रुचि दिखाई और हमें हर प्रकारसे सहायता पहुंचाकर उपकृत किया । साहित्योद्धारकी ट्रस्ट कमेटी में सिं. पन्नालालजी, पं. देवकीनन्दनजी व सेठ राजमलजीके अतिरिक्त भेलसाके श्रीयुत मिश्रीलालजी व सरसावा निवासी पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार भी हैं । इन्होंने प्रस्तुत कार्यको सफल बनाने में सदैव अपना पूरा योग दिया है। पं. जुगलकिशोरजी मुख्तारसे हमें सम्पादन कार्यमें विशेष साहाय्य मिलने की आशा थी, किन्तु हमारे दुर्भाग्यसे इसी बीच उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और हम उनके साहाय्यसे बिलकुल वंचित रहे । किन्तु आगे संशोधन कार्यमें उनसे सहायता मिलने की हमें पूरी आशा है । जबसे इन ग्रंथोंके प्रकाशनका निश्चय हुआ है तबसे शायद ही कोई माह ऐसा गया हो जब हमारी समाजके अद्वितीय कार्यकर्ता श्रीयुक्त ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने हमें इस कार्यको आगे बढ़ाने और पूरा करनेकी प्रेरणा न की हो । धर्मप्रभावनाके ऐसे कार्योंको सफल देखनेके लिये ब्रह्मचारीजीका हृदय ऐसा तड़पता है जैसे कोई शिशु अपने माताके दूध के लिये तड़पे । उनकी इस निरन्तर प्रेरणाके लिये हम उनके बहुत उपकृत हैं। हम जानते हैं घे इतने कार्यको सफल देख बहुत ही प्रसन्न होंगे । सम्पादन व प्रकाशन सम्बन्धी अनेक व्यावहारिक कठिनाइयोंको सुलझानेमें निरन्तर साहाय्य हमें अपने समाजके महारथी साहित्यिक विद्वान् श्रद्धेय पं. नाथूरामजी प्रेमी से मिला है । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रेमीजी जैन समाजमें नवीन युगके साहित्यिकोंके प्रमुख
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