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________________ (८३) व्यंजनोंमें अनेक प्रकारके परिवर्तन व उनका लोप, संयुक्त व्यंजनोंका असंयुक्त या द्वित्वरूप परिवर्तन, पंचमाक्षर , ञ् आदि सबके स्थानपर हलन्त अवस्थामें अनुस्वार व स्वरसहित अवस्थामें ण में परिवर्तन । ये परिवर्तन प्राकृत जितनी पुरानी होगी उतने कम और जितनी अर्वाचीन होगी उतनी अधिक मात्रामें पाये जाते हैं । अपभ्रंश भाषामें ये परिवर्तन अपनी चरम सीमापर पहुंच गये और वहांसे फिर भाषाके रूपमें विपरिवर्तन हो चला । ____ इन सब प्राकृतोंमें प्रस्तुत ग्रंथकी भाषाका ठीक स्थान क्या है इसके पूर्णतः निर्णय करनेका अभी समय नहीं आया, क्योंकि, समस्त धवल सिद्धान्त अमरावतीकी प्रतिके १४६५ पत्रोंमें समाप्त हुआ है। प्रस्तुत ग्रंथ उसके प्रथम ६५ पत्रोंमात्रका संस्करण है, अतएव यह उसका वाईसवां अंश है । तथा धवला और जयधवलाको मिलाकर वीरसेनकी रचनाका यह केवल चालीसवा अंश बैठेगा । सो भी उपलभ्य एकमात्र प्राचीन प्रतिकी अभी अभी की हुई पांचवीं छठवीं पीढीकी प्रतियोंपरसे तैयार किया गया है और मूल प्रतिके मिलानका सुअवसर भी नहीं मिल सका। ऐसी अवस्थामें इस ग्रंथकी प्राकृत भाषा व व्याकरणके विषयमें कुछ निश्चय करना बड़ा कठिन कार्य है, विशेषतः जब कि प्राकृतोंका भेद बहुत कुछ वर्णविपर्ययके ऊपर अवलम्बित है। तथापि इस ग्रंथके सूक्ष्म अध्ययनादिकी सुविधाके लिये व इसकी भाषाके महत्वपूर्ण प्रश्नकी ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित करनेके हेतु उसकी भाषाका कुछ स्वरूप बतलाना यहां अनुचित न होगा। १. प्रस्तुत ग्रंथमें त बहुधा द में परिवर्तित पाया जाता है, जैसे, सूत्रोंमें-गदि-गति; चदु-चतुः; बीदराग-वीतराग; मदि-मति, आदि। गाथाओंमें--पञ्चद-पर्वत; अदीद-अतीत; तदिय-तृतीय, आदि। टीकामें--अवदारो-अवतारः; एदे-एते; पदिद-पतित; चिंतिदं-चिंतितम् ; संटिद-संस्थितम् ; गोदम-गौतम , आदि । किन्तु अनेक स्थानोंपर त का लोप भी पाया जाता है, यथा-सूत्रोंमें--गइ-गति; चउ-चतुः; वोयराय-वीतराग; जोइसिय-ज्योतिष्क; आदि । गाथाओंमें-हेऊ-हेतुः; पयई-प्रकृतिः, आदि । टीकामें-सम्मइ-सम्मति; चउबिह-चतुर्विध; सघाइ-सर्वघाति; आदि । क्रियाके रूपोंमें भी अधिकतः ति या ते के स्थानपर दि या दे पाये जाते हैं। जैसे, (सूत्रोंमें अत्थि के सिवाय दूसरी कोई क्रिया नहीं है)। गाथाओंमें-णयदि-नयति; छिजदे-छिद्यते; जाणदि-जानाति; लिंपदि-लिम्पति; रोचेदि-रोचते; सद्दहदि-श्रदधाति; कुणदिकरेति; आदि । टीकामें-कीरदे, कीरदि-क्रियते; खिवदि-क्षिपति; उच्चदि-उच्यते; जाणदि-. जानाति; पख्वेदि-प्ररूपयति; वददि- वदति; विरुझदे-विरुध्यते; आदि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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