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________________ ५२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ४५. पंचिंदि०-तस०२ सव्वपगदीणं जह० खेत्तभंगो। अजह० पगदिफोसणं कादच्वं । ४६. पंचमण-तिण्णिवचि० पंचणा०-णवदंसणा०-दोवेद०-मिच्छ०-सोलसक०सत्तणोक० -तिरिक्ख०--एइंदि०-ओरा०सरीर-हुंड०-वण्ण०४-तिरिक्खाणु०--अगु०४थावर-पजत्त-पत्ते-थिराथिर-सुभासुभ-भग-अणादें-अजस-णिमि०-णीचा०-पंचंत. जह० अट्ठ० । अजह० लोगस्स असंखें अट्ठचौ सव्वलोगो वा। इत्थि०-पुरिस०[पचिंदि०-] पंचसंठा०-ओरालि अंगो०-छस्संघ०-दोविहा०-तस-सुभग दोसर-आर्दै जह० अट्ठ० । अजह० अट्ठ-बारह० । दोआउ०-तिण्णिजादि-आहार०२ जह० अज० खेंत्तभंगो। दोआउ०-मणुस०-मणुसाणु०-आदाव-तित्थ०-उच्चा० जह० अजह. विशेषार्थ--यहाँ एकेद्रियादि उक्त मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य स्वामित्व और अपना-अपना स्पर्शन आदि जानकर सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन मूलमें कहे अनुसार घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ उसका अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। ४५. पञ्चेन्द्रियद्विक और त्रसद्विक जीवोंमें सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन प्रकृतिबन्धके समान करना चाहिए। विशेषार्थ-चार आयुओंका बन्ध मारणान्तिक समुद्धात आदिके समय सम्भव नहीं और शेष प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध भवके प्रथम समयमें अपनी-अपनी योग्य सामाग्रीके सद्भावमें होता है, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है । तथा सब प्रकृतियोंका प्रकृतिबन्धके समय जो स्पर्शन प्राप्त होता है, वह यहाँ उनका अजघन्य प्रदेशबन्धकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए उसे प्रकृतिबन्धके स्पशेनके सनान जाननेकी सूचना की है। ४६. पाँचों मनोयोगी और तीन वचनयोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकपाय, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तियश्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, स्थावर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, वसनालीका कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेद्रियजाति, पाँच संस्थान, औदारिकशरीर अङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो विहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम बारहबटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, तीन जाति और आहारकद्विकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दो आयु, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, आतप, तीर्थङ्कर और उचगोत्रका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका १ ता० आ० प्रत्योः एइंदि० तिण्णिसरीर इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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