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________________ ५१ फोसणपरूवणा ४४. एइंदि ० - पुढवि० - आउ० तेउ० - वाउ०- वणप्फदि - णियोद- सव्वबादराणं च सव्वपगदीणं जह० अजह० सव्वलो० । णवरि बादरएइंदिय-पञ्जत्तापञ्ज० जह० लोगस्स संखेज्ज० । अजह० सव्वलो० । तससजुत्ताणं जह० अजह० लोगस्स संखेज्ज० । मनुसाउ० सव्वाणं जह० ओघं । अजह० लोगस्स असंखे० सव्वलो० | मणुसगदितिगं च जह० अजह० लोगस्स असंखे० । एवं बादरवाऊणं बादरवाउ ० अपज्जत्तयाणं च । णवरि मणुसगदिचदुक्कं वज्जं । एवं बादरपुढ विकाइगदीणं एइंदियसंजुत्ताणं जह० लोगस्स असंखें० । अजह० सव्वलो० । तससंजुत्ताणं जह० अजह० खेत्तभंगो । सव्वबादराणं उजो०- बादर० - जस० जह० खैत्तभंगो । अजह० सत्तचों० । सव्वसुहुमाणं सव्यपगदीणं जह० अजह० सव्वलो० । वरि मणुसाउ० जह० अजह० लोगस्स असंखें॰ सव्वलो० । प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम नौबटे चौदह भागप्रमाण कहा है। तथा शेष प्रकृतियों का बन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात आदिके समय सम्भव नहीं है, इसलिए उनका अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका तथा दो आयुओंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण कहा है। शेष देवोंमें इसीप्रकार अपना-अपना स्पर्शन जानकर वह घटित कर लेना चाहिए। विशेषता न होनेसे उसका अलग-अलग निर्देश नहीं किया है । ४४. एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद और सब बादर जीवों में सब प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त व अयर्याप्त जीवों में जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । त्रससंयुक्त प्रकृतियों का जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यायुका सब जीवोंमें जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन ओघके समान है। तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यगतित्रिकका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर कहना चाहिए । इसीप्रकार बादर पृथिवीकायिक आदि जीवोंमें एकेन्द्रिय संयुक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। त्रससंयुक्त प्रकृतियों का जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सब बादर जीवों में उद्योत, बादर और यशः कीर्तिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथां अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सब सूक्ष्म जीवोंमें सब प्रकृतियों का जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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