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________________ फोसणपरूवणा ३३ 1 अप्पसत्थ० - दुस्सर० उक० छच्चों | अणु० सव्वलो० । वेउव्वि० - वेउच्चि ० अंगो० उक० अणु० ऍकारह० | पर०-उस्सा ० - पज्जत्त० - थिर- सुभ० ओघं । उज्जो जस० उक्क ० अट्ठ-णव० | अणु० सव्वलो० । [ उच्चा० उक्क० अट्ठचों० । अणु० सव्वलो० । ] एवं अन्भव०-मिच्छादिट्ठिति । और देवगत्यानुपूर्वीका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम छह घंटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । वैक्रियिकशरीर और वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । परयात, उच्लास, पर्याप्त, स्थिर और शुभका भङ्ग ओघके समान है। उद्योत और यशः कीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। उच्चगोत्रका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ बढे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्वलोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवों में जानना चाहिए । विशेपार्थ- देवों में विहारवत्स्वस्थानके समय तथा एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्वातके समय भी पाँच ज्ञानावरणादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके इस पदवाले जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम आठ वटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण कहा है। तथा एकेन्द्रियादि सब जीव इनका बन्ध करते हैं, इसलिए इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है। आगे जिन प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सर्वलोकप्रमाण स्पर्शन कहा है, वह उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । देवों में स्वस्थानविहार के समय और तिर्यञ्चां व मनुष्यों में नीचे छह व ऊपर छह इस प्रकार कुछ कम बारह राजू क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्रातके समय भी स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके इस पदवालोंका बसनालीका कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। नरकायु और देवायुका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार शेष दो आयु, नरकगति और तिर्यञ्चगतिदण्डकका भङ्ग ओघके समान घटित कर लेना चाहिए, क्योंकि स्वामित्वकी अपेक्षा ओबसे यहाँ कोई अन्तर नहीं आता, इसलिए ओवप्ररूपणा बन जाती है । मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह पहले अनेक बार उल्लेख कर आये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। ऊपर सहस्रार कल्पतकके देवों में मारणान्तिक समुद्रात करनेवाले जीवों के भी देवगति आदिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इन प्रकृतियोंके इस पदवाले जीवोंका त्रसनालीका कुछ कम पाँच बढे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। एकेन्द्रियादिसे लेकर नारकियों में मारणान्तिक समुद्भात करनेवाले जीवोंके व चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके व नारकियों और देवोंके देवगतिद्विकका बन्ध नहीं होता, इसलिए देवगतिद्विकका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवों का भी सनालीका कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन कहा है । नारकियों में मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीवों भी अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्भव है, इसलिए इनके इस पदवालोंका स्पर्शन त्रसनालीका कुछ कम छह घंटे चौदह भागप्रमाण कहा है। नीचे ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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