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महावंधे पदेसबंधाहियारे २७. मदि-सुद० पंचणा०-णवदसणा०-दोवेद ०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक०णीचा०-पंचंत० उक० अगु० सव्वलो । अणु० सव्वलो० । इत्थि०-पुरिस-चदसंठा०पंचसंघ. उक्क० अट्ठ-बारह | अणु० सव्वलो० । दोआउ० खेत्तभंगो। तिरिक्समणुसाउ०-णिरय०-णिरयाणु -[आदाव] ओघं । तिरिक्खगदिदंडओ ओघं । मणुसगदिचदुजादि-ओरालि० अंगो०-असंपत्त०-मणुसाणु०-तस-बादर० उक्क० खेत्तभंगो । अणु. सव्वलो० । देवगदि-समचदु०-देवाणुपु०-दोविहा०-सुभग-दोसर-आर्दै० उक० पंचचौँ । अणु० सव्वलो०। णवरि देवगदि-देवाणु० अणु० पंचचौ । अप्पसत्थ०अलग गुणस्थानों में होता है । यतः ऐसे जीवांका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। दो आयु. वैक्रियिकपटक और आहारकद्विकके दोनों पढ़वालोंका जो स्पर्शन ओघमें कहा है ,वह यहाँ अविकल घटित हो जाता है, इसलिए इसे
ओबके समान जाननेकी सूचना की है। तिर्यञ्चायु आदिका भङ्ग सामान्य तियञ्चोंके समान है, यह स्पष्ट ही है । मनुष्यगति आदिका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है,यह पहले अनेक बार लिख आये हैं, उसी प्रकार यहां भी जान लेना चाहिए। परघात आदिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका म्पर्शन जैसा सामान्य तिर्यञ्चों में घटित करके बतलाया है, उसीप्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। ऊपर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके भी उद्योतका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध सम्भव है और ऐसे जीवोंका स्पर्शन त्रसनालीके कुछ कम सात बटे चौदह भागप्रमाण होता है, इसलिए यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग क्षेत्रके समान है, यह स्पष्ट ही है। क्रोधादि चार कपायवालों में ओघ ग्वामित्वसे बहुत ही कम अन्तर है। जो अन्तर है उससे म्पर्शनमें फरक नहीं पड़ता, इसलिए इनमें ओवके समान स्पर्शनके जाननेकी सूचना की है।
२७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, दो वेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कपाय, सात नोकपाय, नीचगोत्र और पाँच अन्तगयका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीके कुछ कम आठ वटे चौदह भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुपवेद, चार संस्थान और पाँच संहननका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीके कुछ कम आट और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयुओंका भङ्ग क्षेत्रके समान है । तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और आतपका भङ्ग ओधके समान है। तिर्यञ्चगतिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यगति, चार जाति, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, असम्प्राप्तामृपाटिका संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, त्रस और बादरका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति, समचतुरस्रसंस्थान, देवगन्यानुपूर्वी, दो विहायोगति, सुभग, दो स्वर और आदेयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि देवगति
१. ता. प्रतौ 'तिरिक्त मगुमाउ• आर्य। गिरय० णिरयाणु' आ० प्रतो 'तिरिक्त मणुसाउ० णिरयाणु' इति पाठः ।
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