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________________ फोसणपरूवणा २१. ओरालियमि० पंचणा०-थीणगिद्धि०३-सादासाद०-मिच्छ० अणंनाणु०४णवंस०-तिरिक्ख०-एइंदि० -तिण्णिसरीर-हुंड० - वण०४-तिरिक्खाणु० -- अगु०४थावर-सुहुम-- पजत्तापञ्जत्त-पत्त०-साधार-थिराथिर-सुभासुभ-दृभग-अणाद-अजमणिमि०-णीचा०-पंचंत० उक० लोगस्स असंखे० । अणु० सव्वलो० । सेसा 0 अणु० खेत्तभंगो। २२. वेउब्धियका० पंचणा०-थीणगिद्धि०३-दोवेद०-मिन्छ०-अणता ० ४-णस०--णीचा०-पंचंत० उक्क० अणु० अट्ट-तेरह । छदंस०-बारसक०-छण्णोक० उक्क० अट्ठचो० । अणु० अट्ठ-तेरह० । इथि-पुरिस-पंचिंदि०-पंचसंटा०-ओरालि. अंगो०-छस्संघ०-दोविहा०-तस-सुभग-दोसर-आदे० उक्क० अणु० अट्ठ-बारह० । णवरि पुरिस० उक्क० अढ० । दोआउ०-मणुस०-मणुसाणु०-आदाव-तित्थ०-उच्चा० चौदह भागप्रमाण कहा है। पुरुपवेदकी अपेक्षा जो स्पर्शन कहा है उसी प्रकार यशःकीतिकी अपेक्षा भी स्पर्शन बन जाता है, इसलिए इसका भङ्ग पुरुषवेदके समान कहा है। २१. औदरिकमिश्रकाययोगी जीवामें पाँच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्धित्रिक, साताबेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, अनन्तानुवन्धीचतुष्क, नपुंसकवेद, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, अगुरुलधुचतुष्क, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकाति, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवाने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवाने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-पाँच ज्ञानावग्णादिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके एक समय पूर्व करते हैं, इसलिए इनके इस पदवालोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा औदारिकमिश्रकाययोगका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन होनेसे इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशवालोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है । शेय प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तो शरीरपर्याप्ति पूर्ण होनेके एक समय पूर्व संज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं, इसलिए इनके इस पदवाले जीवोंका म्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे वह क्षेत्रके समान कहा है और इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशवाले जीवों जिसका जो क्षेत्र कह आये हैं वह यहां स्पर्शन घटित हो जानेसे वह भी क्षेत्रके समान कहा है। २२. वैक्रियिककाययोगी जीवाम पांच ज्ञानावरण, स्त्यानगृद्वित्रिक, दो वेदनीय, मिथ्यान्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, नसकवेद, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। छह दर्शनावरण, बारह कपाय और छह नोकपायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कर वाले जीवोंने प्रसनालीके कुछ कम आठ वटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा इनकाअनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंने बसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद, पञ्चेन्द्रि यजाति, पाँच संस्थान, औदारिक शरीर आङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, दो बिहायोगति, त्रस, सुभग, दो स्वर और आदेयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवांने त्रसनालीके कुछ कम आठ और कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001394
Book TitleMahabandho Part 7
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size9 MB
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